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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
12. श्रीकृष्ण की मनोहर बाललीलाएँ
‘यह गोष्ठ तो दुष्टों का आवास बन गया है। इसलिये दोनों बालकों को अन्तर्गृह में ही छिपाये रखना चाहिये।’ इसीलिये उस दिन से श्रीकृष्णचन्द्र तोणद्वार से उस पार न जा सके। विशाल मणिमय प्रांगण ही सबसे उनका लीलामंच बना हुआ है। उसी मंच पर इस समय नुपूर की खरलहरी झंकृत हो रही है, व्रजतरुणियाँ श्रीकृष्णचन्द्र का नृत्य देखकर तन-मन-प्राण न्योछावर कर रही हैं। अस्तु, अचानक नृत्य का विराक करके श्रीकृष्णचन्द्र हँसने लगते हैं तथा समीपवर्ती मन्थन-गगरी की ओर देखते हैं। गगरी में गगनस्थ चन्द्र प्रतिबिम्बित है। इस प्रतिबिम्ब ने ही श्रीकृष्णचन्द्र का ध्यान आकर्षित किया है। अतः वे और समीप जाकर उसे देखते हैं। सोचते हैं-यह ऐसी सुन्दर वस्तु क्या है? फिर कुछ क्षण बाद जननी से पूछते हैं-‘री मैया! गगरी में यह अत्यन्त उज्ज्वल क्या समाया हुआ है?’ जननी पुत्र की भोली बात सुनकर केवल उनके मुखकमल की ओर देखती हैं, कोई उत्तर नहीं देतीं। उत्तर न पाकर श्रीकृष्ण किंचित दूर खड़ी हुई जननी के पास जाकर, अंचल पकड़कर फिर प्रश्न करते हैं। इस बार जननी हँसकर कती हैं-‘मेरे लाल! यह चन्द्रप्रतिबिम्ब है।’ श्रीकृष्ण विस्फारित नेत्र होकर आश्चर्य में भरकर बोले-‘यह चन्द्र है?’ उत्तर में जननी के मुख से निकल पड़ा-‘हाँ, मेरे प्राणधन! यह चन्द्र है।’ फिर तो श्रीकृष्ण के उल्लास की सीमा न रही। हाथों को नचाकर ताली पीटकर वे बोले-‘मेरी मैया! तू इसे गगरी से निकालकर मेरे हाथों पर रख दे।’ नन्दरानी हँसने लगती हैं, व्रजसुन्दरियाँ हँस-हँसकर लोट-पोट हो जाती हैं। किंतु श्रीकृष्ण जननी के अंचल का छोर पकड़े बारंबार कह रहे हैं-‘री! उसे निकाल दे, शीघ्र निकालकर मेरे हाथों में दे दे।’ जननी पुत्र को अन्य बातों में भुलाना चाहती हैं; पर वे तो भूलते ही नहीं, बल्कि रोना आरम्भ करते हैं। इसी समय समीप अवस्थित प्रभावती (उपनन्दपत्नी) को एक सुन्दर बुद्धि उपज आती है। वे नन्दरानी को धीरे से कान में संकेत कर देती हैं। संकेत करके स्वयं भंडार में चली जाती हैं, एक विशाल नवनीत खण्ड की पीठ की ओर छिपाकर ले आती हैं तथा श्रीकृष्ण की दृष्टि बचाकर मन्थन-गगरी में डाल देती हैं। यह हो जाने पर अंचल से पुत्र की आँखें पोंछती हुई जननी बोलीं-‘अच्छा, चल, मैं तेरे हाथ पर रख देती हूँ।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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