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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
12. श्रीकृष्ण की मनोहर बाललीलाएँ
फिर आज जब शत-सहस्र गोपसुन्दरियाँ अन्तहृर्दय में श्रीकृष्णचन्द्र की कोई नयी-सी चेष्टा देखने की लालसा छिपाये आ रही हैं, उस समय वे सो जायँ-यह कभी सम्भव है? वे तो उनकी वासना की छाया लेकर उनकी कल्पना से भी सर्वत्था परे की एक अतिशय कमनीय बाल्यभंगिमा ग्रहण करने जा रहे हैं; योगमाया के सजाये हुए रंगमंच पर अवस्थित होकर वे तो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि गोपसुन्दरियाँ आयें और अभिनय आरम्भ हो। उनके नेत्रों में आज निद्रा कहाँ? इसीलिये गोपसुन्दरियाँ श्रीकृष्णचन्द्र को जागे हुए ही पाती हैं, दिन की भाँति ही उन्हें सर्वथा निरालस्य एवं चंचल देखकर नचाने लग जाती हैं; श्रीकृष्णचन्द्र भी ‘थेइ थेइ थेइ तत्त थेई’ तालपर पदसंचालन करते हुए नाच रहे हैं। व्रजरानी समागत गोपरामाओं की समुचित अभ्यर्थना इस समय नहीं कर पा रहीं हैं, पर उन्हें देखकर उनके आनन्द का पार नहीं; क्योंकि नन्दरानी सोच रहीं हैं-ये जागरण रखकर श्रीनारायण का नामोच्चारण करेंगी, उतने समय तक मेरे नीलमणि को कोई विपत्ति स्पर्श तक नहीं कर सकेगी। तृणावर्त के निवन के दिन से जननी अत्यन्त सावधान जो रहती हैं। और तो क्या, समीर के झोंकों से तरुपत्र प्रकम्पित होते देखकर चंचल पत्रों की ध्वनिमात्र सुनकर वे पुत्र को गोद में उठा लेती हैं। केवल व्रजरानी ही नहीं, ब्रजेन्द्र भी अतिशय सजग हैं। उन्होंने अपनी महती सभा में सर्वसम्मति से उसी दिन यह निश्चय कर लिया है-नियम बना दिया है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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