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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
12. श्रीकृष्ण की मनोहर बाललीलाएँ
बस, जननी का प्रेमनिर्बन्ध और पिता के प्राणों की लालसा-दोनों ने श्रीकृष्णचन्द्र को नचा ही तो दिया। नूपुर की रुनझुन-रुनझुन तालपर करताली देते हुए वे नाचने लगे। उनके साथ व्रजेन्द्र का मन भी नाचने लगा। इतना ही नहीं, शरीर से सर्वथा निकलकर व्रजेन्द्र का मन उस नूपुरध्वनि में ही मानो विलीन हो गया। मनशून्य व्रजेन्द्र प्रवालस्तम्भ पर अपने शरीर का भार दिये, अपलक नेत्रों से उस छवि को भरे एक पहर के लिये अन्य सब कुछ भूल गये। अब तो व्रजपुर में यह लहर-सी दौड़ गयी। दल-की-दल व्रजवनिताएँ श्रीकृष्णचन्द्र का यह नृत्य देखने आने लगीं। श्रीकृष्णचन्द्र भी मुक्तहस्त होकर अपनी यह मधुरिमा वितरण कर रहे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इस पर अनेकों अन्य बाल्यसुलभ चेष्टाओं की पुट भी लगा देते थे। मानो श्रीकृष्णचन्द्र की शैशवधारा क्रमशः गमीर होती जा रही थी-पहले बुद्बुदे उठे, फिर धारा फेनिल हो उठी, फिर उसके वक्षःस्थल पर तरंगें नृत्य करने लगीं और फिर उसमें आवर्त (भँवर) बन गये। इस प्रकार पहले उनके मुखाविन्द से अस्फुट स्खलित शब्द निस्सरित हुए। पश्चात् उज्ज्वल हास्य रंजित तोतली वाणी निकली; फिर मधुर गायन-नर्तन आरम्भ हुआ और फिर ये नृत्यगीत अत्यन्त मनोहर बाल्यभंगिमाओं से सम्पुटित होने लगे। एक अद्भुत लीलामृत धारा व्रजपुर में प्रवाहित हो रही थी। इस धारा का, इसके एक कण का आस्वाद इन्दिरा तो स्वप्न में भी न पा सकीं; किंतु व्रजवनिताएँ अंजलि भरकर पान कर रहीं थीं, इसमें अवगाहन कर रहीं थीं। निगम इसके स्वरूप निर्धारण में संलग्न थे; महेश सोच रहे थे; शेष की समस्त युक्तियाँ समाप्त हो गयी थीं; पर किसी ने भी पार नहीं पाया कि यह लीलासुधाधारा क्या, कैसी, कितनी अद्भुत है। ओह! रूपयौवन भार से दबी किन्नरियाँ जिन्हेुं कभी न देख पायीं, वीणा की झंकार से विश्व को विमोहित करने की सामर्थ्य रखने वाली गन्धर्वांगनाओं के दृष्टिपथ में जो कभी न आये, पाताल के सुरदुर्लभ वैभव की अधिकारिणी नागतरुणियाँ जिनका कभी अनुसंधान न पा सकीं, उन श्रीकृष्णचन्द्र को गोबर पाथने वाली आभीर बालायें करताली दे-देक सूत्रबद्ध कपि की भाँति नचा रही थीं; श्रीकृष्णचन्द्र भी सर्वथा उनके भाव का अनुसरण करते हुए नाच रहे थे। नृत्यमात्र नहीं, उनके प्रत्येक मनोरथ की पूर्ति, प्रत्येक आज्ञा का पालन कर रहे थे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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