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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
12. श्रीकृष्ण की मनोहर बाललीलाएँ
एक गोपी कहती-‘मेरे लाल! वह पाँवड़ी उठाकर मेरे हाथों में दे तो दे।’ यह सुनते ही श्रीकृष्णचन्द्र जाते, अरुणनव किसलय हाथों में व्रजेन्द्र की वह काष्ठनिर्मित पाँवड़ी (पादुका) उठा लाते, गोपी के हाथों में रख देते। दूसरी गोपी कहती-‘मेरे प्राणधन! शक्ति लगाकर उस पीढ़े को तो उठा ला।’ यशोदानन्दन जाकर पीढ़े को क्रमशः अपने घुटनों पर, फिर उदर पर रखते, फिर मन्द-मन्द गति से चलते हुए ग्वानि के सम्मुख जाकर उसे रख देते। तीसरी नन्दनन्द को पीठ-वहन के श्रम से श्रमित-सा देखकर कहती-‘मेरे हृदयधन! सोहनी (झाडू) किसे कहते हैं? तू जानता है? उसे तू मेरे हाथ में दे दे तो जानूँ।’ नन्दनन्दन पद्मराग निर्मित चैखट की आड़ में पड़ी सोहनी की ओर सलोनी चितवन से देखते, फिर से उठा लाते, गोपांगना के हाथों पर रख देते। चौथी पूछती-’नन्दलाल! सीढ़ी पर चढ़ तो भला!’ श्रीकृष्ण वैदूर्यरचित गृहचूड़ा से संलग्न स्फटिक-निःश्रेणी की ओर दौड़ पड़ते, चढ़ने लग जाते; आनन्द से विवश होकर अश्रुपूरित नेत्र हुई वह ग्वालिन शीघ्रता से पकड़ लेती, प्रांगण में लाकर खड़ा कर देती। एक आभीरबाला संकेत करती-‘वह देख, नीलमणि! मयूर का नृत्य देख! अहा! कितना सुन्दर नृत्य है। तू भी इसकी तरह नाच तो सही।’ ग्वालिन के मनोरथ की पूर्ति के लिये नीलमणि अपनी दोनों भुजाओं को पीठ की ओर ले जाकर फैला देते, कमर झुका देते, पीठ बंकिम बना लेते, ग्रीवा ऊपर उठा देते तथा रुनझुन-रुनझुन ध्वनि करते हुए आभीरबाला की परिक्रमा करने लगते; नन्दप्रांगण गोपांगनाओं की तुमुल हर्षध्वनि से निनादित होने लगता। कोई गोपबाला प्रश्न करती-‘बता, मेरे लाल! भ्रमर का गुंजारव कैसे होता है? उसकी बात सुनकर श्रीकृष्ण कुछ क्षण उद्यान से उड़-उड़कर आते हुए मधुमत्त भ्रमर की ओर देखते; फिर उसी का अनुकरण करते हुए-‘गूँ ऊँ ऊँ ऊँ..........’ ध्वनि करते। गोपिकाएँ अट्टहास करने लगतीं, श्रीकृष्ण भी उनके स्वर में मानो स्वर मिलाकर हँसने लगते। कोई ग्वालिन द्वारदेश तक दौड़ने की आज्ञा देती, नीलमणि दौड़ पड़ते। द्वार तक पहुँचने के पूर्व ग्वालिन अपनी ग्रीवा से हीरक हार निकाल लेती, चौखट पर फेंक देती। ग्वालिन के प्राणों में स्पन्दन होने लगता-‘आह! अब इस हीरक हार से क्या प्रयोजन? यशोदा के नीलमणि को ही वक्षःस्थल का हार बनाऊँगी।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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