श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
1. जन्म-महोत्सव
गोपों का आनंदोन्माद उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। बूढ़े व्रजेन्द्र को भी उन सबने अपने बीच में ले लिया है और इतना दूध, दही, घृत और नवनीत ढरकाया है कि नदी-सी बह चली है। दूध-दही के अनेकों गम्भीर गर्त बन गये हैं। उनमें लोटते हुए गोपों का शरीर सर्वथा उज्ज्वल दीखने लगा है, मानो ये गोप दुग्ध सागर की चञ्चल तरंगें हों। व्रजेन्द्र कभी तो इस दूध-दही की नदी में स्नान करने आते हैं, कभी रत्न राशि लुटाने के लिये द्वार देश पर खड़े हो जाते हैं। याचना की आवश्यकता नहीं, कोई भी विद्योपजीवी आकर खड़ा हुआ कि नन्दराज रत्नों की झोली, वस्त्रों की गठरी और गोधन की टोली लेकर उसके पास जा पहुँचे; सदा के लिये उसका मँगतापन मिटा दिया। व्रजेश-कुल के सूत, मागध, बंदीजन आज अयाची बन गये - इसमें तो कहना ही क्या है। व्रजेन्द्र जो इतनी सम्पत्ति लुटा रहे हैं, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। उनका भंडार ही अब अनन्त, असीम बन गया है; क्योंकि सारे विश्व की समस्त सम्पत्ति जिनकी चरण सेविका लक्ष्मीजी की आंशिक विभूति है, वे स्वयं आज पुत्र के रूप में व्रजेश के घर पधारे हैं। प्राकृत भंडार की सीमा होती है, उसमें से कुछ निकालने पर उतना अंश कम हो जाता है, उतने अंश की पूर्णता अपेक्षित होती है। पर व्रजेश का अंडार प्राकृत नहीं; वह ऐसा है कि उसमें से जितना वे निकालेंगे, उतना ही बचा रह जायगा। अपनी जान में सम्पूर्ण निकाल लेंगे तो भी उसमें सम्पूर्ण बचा रहेगा। इसीलिये उनके देने में आज विराम नहीं, हिसाब नहीं; देते ही चले जा रहे हैं। हाँ, देते समय व्रजेश के वात्सल्य-प्रेम परिभावित मन में निरन्तर केवल एक भावना है-
इस दान से मेरे इष्टदेव नारायण प्रसन्न हों, उनकी प्रसन्नता से मेरे पुत्र का कल्याण हो। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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