श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
1. जन्म-महोत्सव
भीतर, अन्तःपुर में हरिद्रा-तैल की कीच मची है। गोपांगनाएँ परस्पर एक दूसरे पर हल्दी-तेल छिड़क रही हैं। छिड़कती हुई बाहर आती है। व्रजेन्द्र की, गोपों की दशा देखकर आनन्द में निमग्न होकर गाने लगती हैं-
आज व्रजेश्वर ने सबसे अधिक सम्मान श्री रोहिणीजी का किया है। आज का सम्मान रोहिणी ने स्वीकार भी कर लिया है। इससे पूर्व रोहिणी ने कभी नन्द-घर के सुन्दर वस्त्र, सुन्दर आभूषणों की ओर ताकातक नहीं था। वे सदा पति वियोग, पति-बन्धन से मन-ही-मन खिन्न रहती थी। पर आज यशोदा नन्दन का मुख देखते ही रोहिणी का रोम-रोम आनन्द में निमग्न हो गया। इसी से वे नन्द प्रदत्त दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो कर पुर महिलाओं के सत्कार में लगी हुई है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
सखियो! गोकुलेश्वर नन्द जी को तो देखो। पुत्रोत्सव के आनन्द में निमग्न होकर आज वे कितने चञ्चल, कितने कौतुक-परायण हो रहे हैं। बहनों! यह सामने का दृश्य देखकर मुझे तो सागर-मन्थन की स्मृति हो रही है। देखो तो सही, दही से भरा हुआ यह व्रज सागर-जैसा हो गया है और उसमें मन्दर पर्वत-से होकर नन्दजी सर्वत्र घूम रहे हैं। उनकी कमर में लपेटा हुआ वस्त्र धृत-दधि से चिकना होकर, फूलकर ठीक वासुकि नाग-जैसा बन गया है। उसे पकड़ कर उनके प्रिय सुहृद् जन उन्हें इधर-उधर खींच ले जा रहे हैं और वे अतिशय प्रसन्न हो रहे हैं। इतना ही नहीं, जैसे समुद्र-मन्थन के समय अनेकों रत्न निकल रहे थे, मन्दर-पर्वत सागर के रत्नों को निकाल-निकाल कर फेंक रहा था, वैसे ही ये नन्द जी बीच-बीच में रत्न राशि लुटाने लग जाता है। अहा! आज इनकी कैसी आश्चर्यमयी शोभा है। पर बहनो! क्या बताऊँ, आश्चर्य की कोई सीमा नहीं, इस सागर मन्थन में तो एक अपूर्व बात हुई है। सर्वत्र प्रसिद्ध है - चन्द्रमा मन्थन प्रारम्भ होने पर - सागर मथे जाने पर निकले थे; पर नन्द का यह शिशु-चन्द्र तो मन्थन प्रारम्भ होने के पूर्व ही प्रकट हो गया।
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