श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
‘अहो! क्या ही आश्चर्य है। यह बालक राक्षस के द्वारा मृत्युपथ में उपनीत होकर भी हमारे समीप लौट आया। सत्य है, हिस्रप्रकृति दुष्ट प्राणी अपने पापों से ही विनष्ट हो जाते हैं और साधुपुरुष अपनी साधूचित समता के कारण समस्त विपज्जाल से मुक्त हो जाते हैं। अथवा भाइयों! यह भी सम्भव है-हमलोगों के भाग्य से ही इसकी रक्षा हुई है। ओह! न जाने हमलोगों ने कितनी तपस्याएँ की हैं, कितने दान दिये हैं, कैसे-कैसे कितने इष्ट (पंचमहायज्ञ, होम आदि), पूर्त (वापी-कूपतडागादि-निर्माण), सर्वभूतहिताचरण किये हैं, न जाने अधोक्षज भगवान् की कितनी अर्चना की है, जिसके फलस्वरूप हमारे सौभाग्य से भी बन्धुओं को जीवनदान देते हुए मृत्युकवलित होकर भी यह बालक हमलोगों के समक्ष पुनः उपस्थित है।’ ब्राह्मणों को बुलाकर व्रजेन्द्र विधिवत स्वस्त्ययन कराते हैं। उन्हें एक लक्ष गोदान, एक लक्ष सुन्दर वसन, दस लक्ष स्वर्णमुद्रा, सहस्र नवरत्न भेंट करते हैं। पुनः व्रजपुर आनन्दमुखरित हो उठता है। जिस ग्वालिन ने श्रीकृष्णचन्द्र को तृणावर्त के समीप लाकर जननी यशोदा की गोद में रखा था, वह अभी भी यहीं है, एक निमेष के लिये भी वह नन्दभवन से बाहर नहीं गयी है। नीलमणि परिश्रान्त-से हुए आज गोधूलि के पूर्व ही सो गये हैं। व्रजरानी उस ग्वालिन पर ही रक्षा का भार देकर दो-चार क्षण के लिये नारायण सेवा की सामग्री एकत्रित करने जाना चाहती हैं, पर यह सुनते ही वह क्रोध में भर जाती है। वह पले भी व्रजमहिषी को उपालम्भ दे चुकी थी, इस समय तो और भी खीझ गयी है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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