श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
इसके पश्चात् व्रजेन्द्र पहुँचते हैं। उनके साथ समस्त गोपकुल उमड़ पड़ता है। व्रजेन्द्र घटना सुनकर कुछ क्षण तो जड़पुत्तलिका-सी बन जाते हैं। फिर भावावेग शिथिल होने पर श्रीकृष्ण को गोद में धारण करना चाहते हैं। पर हाथों में इतना कम्पन हो रहा है कि मानो वे हाथ वातव्याधि से पीड़ित हों। नेत्रों से देखना चाहते हैं तो अनर्गल अश्रुधारा बह चलती है। पुत्र को वे न तो हाथों से थाम सकते हैं, न नेत्रों से जी भरकर देख पाते हैं। व्रजेन्द्र की इस प्रेमभावित असमर्थता की ओषधि धात्री जानती हैं। इसलिये जब व्रजराज वहीं भूमिपर बैठ जाते हैं, तब वह श्रीकृष्ण को जननी की गोद से उठाकर उनकी गोद में दे देती है। वे अपने लाल को हृदय से लगाकर बेसुध हो जाते हैं। और तो क्या, दूरसे इस प्रचण्ड झंझावत को देखकर श्रीवृषभानुजी सदलबल आ पहुँचे हैं। विपत्तिगाथा सुनकर तो नेत्रों में जल भरा है, पर श्रीकृष्ण को सुरक्षित देखकर रोम-रोम आनन्द से पुलकित हो रहा है। अब वे प्रमुख गोपों की सभा में बैठकर परस्पर चर्चा कर रहे हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।7।31-32)
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