श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
श्रीकृष्णजननी की मूर्च्छा भंग करने के सारे प्रयत्न विफल हो चुके थे। अब प्राण जा रहे थे। पर जैसे ही एक गोपांगना ने आकर यह कहा-
उसका यह कहना था कि एक तडिल्लहरी-सी जननी के प्राणों में दौड़ गयी। उनके नेत्र खुल गये। खुलते ही गोपी की गोद में नीलमणि के दर्शन हुए। ओह! जननी के उस संदर्शन की तुलना करने की सामर्थ्य किसमें है? देवी सरस्वती इतना ही कह सकती हैं-
‘दैत्य के द्वारा अपहृत शिशु को पाकर महाप्रयाण (मृत्यु) में लीन होने पर भी यशोदा उसी क्षण वैसे ही चैतन्य हो गयीं, जैसे वर्षा का जल पाकर इन्द्रगोप (वीरबहूटी) कीट की जाति जीवित हो जाती है।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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