श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
गोपसुन्दरियाँ श्रीकृष्णचन्द्र को हृदय से लगाकर तत्क्षण नन्दरानी के पास दौड़ पड़ती हैं। किंतु वे तो बाह्यज्ञानशून्य हो गयी हैं। बीच में कभी-कभी चेतना आने पर कह उठती हैं-
‘आह! जिन विधाता ने जैसे पूतना के विषमय स्तन्यपान से एवं शकटपतन से रक्षा की थी, वे ही इस समय भी मेरे उस पुत्र की सदा रक्षा करें। ओह! यदि परमेश्वर के द्वारा रक्षित हुआ वह मेरा पुत्र मुझे अब मिल जाय तो मैं फिर कदापि उसे अपनी गोद से उतारकर भूमि पर न छोडूँगी। हाय! बहनो! शीघ्र तुम सब चारों ओर देखो-पता नहीं बवंडर उसे कहाँ उठा ले गया है, वह कहाँ गिर पड़ा है। हाय! हाय! शीघ्रता करो, जब तक मेरे प्राण बाहर प्रयाण नहीं कर रहे हैं, तभी तक समय है, तभी तक उसे मेरे समीप ले आओ। अब अधिक विलम्ब नहीं है।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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