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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
79. व्रज में पावस की शोभा का वर्णन
इस पाठ को सामने रखकर अग्रसर होना, फिर पथ भ्रान्त नहीं होओगे। देखो, सागर स्थिर है, फिर भी वर्षा कालीन नद-नदियों का उद्दाम प्रवाह, पावस का झंझावत इसे विक्षुब्ध कर देता है ठीक उसी प्रकार, जैसे अविशुद्ध चित्त योगियों का विविध वासना-बीजयुक्त चित्त विषयों के सम्पर्क में आते ही चञ्चल हो उठता है। कदाचित वे सावधान होते, विषयों का सम्बन्ध परित्याग कर, यथायोग्य साधनानुष्ठान में संलग्न होते तो क्रमशः इन वासनाओं का विनाश हो जाता, नीलसुन्दर की चरण नख-चन्द्रिका से उनका अन्तस्तल उद्भासित हो उठता; किंतु इस ओर उनका ध्यान नहीं होता, माया के चाकचिक्य में वे साध निष्ठान का पथ भूल जाते हैं, विषयों का सम्बन्ध होने लगता है। फिर तो आन्तरिक सुप्त वासनाएँ जाग उठेगी ही, चित्त विक्षुब्ध होकर ही रहेगा। इसके कितने उदाहरण तुम्हारे सामने ही होंगे। परमार्थ-जीवन का आरम्भ कितना त्यामगमय था। एक दिन हिमाचल की शान्त कन्दरा में निवास था, उस अकिंचन जीवन में कामनाएँ स्वप्न में भी नहीं स्पर्श करती थीं। उत्कट वैराग्य की आग में मानो संसार स्वाहा-सा हो चुका था; किंतु भक्त दर्शन करने आये, उनकी एकान्त प्रार्थना से उनके गृह कुटीर को पवित्र करने की शुद्ध वासना जाग उठी और फिर शैलेन्द्र की शरण त्याग कर भक्त के उद्यान में, एक शान्त कुटिया में निवास हुआ। अब भक्तों की और भीड़ बढ़ी। प्रत्येक भक्त का मनोरथ पूर्ण करना भगवत्सेवा प्रतीत होने लगी। उनकी मनुहार स्वीकार करना कर्तव्य बोध होने लगा। भू-शयन छूटा, कन्या छूटा, कन्द-मूल-वन-फल का आहार छूटा और उसके स्थान पर आयी मनोरम सुकोमल शय्या, क्षौमनिर्मित उत्तरीय एवं अधो वस्त्र, विविध चर्व्य-चोष्य-लेह्य-पेय का सुखद भोग वहाँ तो अंगों में शीतजन्य चिह्न अंकित हो गये थे, धूलधूसरित रहते थे वे, और अब कहाँ सम्पूर्ण अवसुचिक्कण हो गये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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