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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
79. व्रज में पावस की शोभा का वर्णन
और भी देखो, जानते हो कलिन्द नन्दिनी का प्रवाह किधर किस ओर जा रहा है, क्यों इसमें इतनी ऊँची-ऊँची तरंगें उठ रही हैं? अच्छा सुनो, अन्तर्दृष्टि से देखो, उद्वेलित प्रवाह पहले सुरसरिसे संगमित हो जाता है। फिर दोनों की एकीभूत धारा सागर का आलिंगन कर रही है। सागर इस परम पावन स्पर्श से कृतार्थ हो रहा है। आनन्दातिरेक से उसके श्वास फूल रहे हैं, बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही है उसमें, उसने तपनतनया के हृदय में संचित श्रीकृष्ण चरण सरोरुह का पराग जो पा लिया, नहीं-नहीं, पावस के इस प्लावन में व्रजपुर की धरा के राशि-राशि रजःकण बटोर कर रवि नन्दिनी ले आयी हैं। सागर को यह अप्रतिम निधि अपने-अपने आप प्राप्त हो गयी है, वह निधि जिसके लिये पितामह तरसते रहते हैं, स्वयं यमुना जब इन रजःकणों को बटोरने लगती है, मर्यादा तोड़कर जब कानन की उन पगडंडियों को, निम्न देश में अवस्थित पुरवीथियों को जिन पर व्रजपुर वासी अपना पग रखते हैं- धाने लगती हैं, उस समय उनका आनन्द विवश हृदय-हृदय का सम्पूर्ण रस उच्छंकित हो उठता है। यह रस ही तो इनकी विशाल ऊर्मियों के रूप में व्यक्त हो रहा है और फिर बड़े वेग से सागर को भेंट समर्पित करने के लिये वहन किये जा रही हैं व्रज-पुरवासियों के, गोप शिशुओं के, व्रज दम्पत्ति के, व्रजांगनाओं के चरणपद्मों का पराग। कितना अचिन्त्य सौभाग्य है इनका और सागर का। इसीलिये तो सागर भी उन्मत्त हो उठा है। अब यदि समझ सकते व्रजरज की महिमा को तो तुम्हें भी भान होता यह आनन्द कैसा होता है। किंतु तुम्हारा मन तो कामना-वासना से युक्त हैं, नेत्रों पर घना आवरण है इनका। कैसे हृदयंगम कर सकोगे इस अप्राकृत दिव्याति दिव्य आनन्द को। हाँ, अपने अधिकार के अनुरूप इसकी ओट से एक संकेत प्राप्त कर लो, बड़ा लाभ होगा तुम्हारा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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