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ग्रीवा में भक्तों के द्वारा अर्पित पुष्पहार सुशोभित हो उठा! ऐसी स्थिति में पावस के समुद्र की जो दशा होती है, वही चित्त की हो जाती है। अत एव सावधान रहना, भला! नीलसुन्दर की श्रीअंगों में जब तक तुम्हारा चित्त मिल न जाय, व्रजेन्द्र नन्दन के अतिरिक्त कुछ भी स्फूर्ति हो रही हो, तब तक विषय-सम्बन्ध से दूर-दूर रहना। चित्त में अविराम अंकित करते रहना उस इन्द्रनीलद्युति छवि को ही! उस नीलिमा के अतिरिक्त बाहर का कुछ भी स्वीकार न करना। कलिन्द नन्दिनी, सुरसरि एवं सागर के संगम की ओट में व्यक्त हुआ यह पाठ-शिक्षा क्षण भर के लिये भी भूल न जाना!-
- सरिद्भि: संगत: सिंधुश्चुक्षुभे श्वसनोर्मिमान्।
- अपक्कयोनिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा॥[1]
- सरित-संग करि छुभित जु सिंधु।
- उभगि ऊरमी ह्वै गयौ अंधु।।
- यौं अपक्क जोगी चित धाइ।
- विषयन पाइ भ्रष्ट ह्वै जाइ।।
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