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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
79. व्रज में पावस की शोभा का वर्णन
नीलसुन्दर विहार स्थल के स्रोत उमड़ कर भी किसी को ध्वंस नहीं करते, अपथ से चलकर भी, अत्यन्त वेग से बहकर भी वे प्रक्षालित करते हैं व्रजेन्द्र नन्दन के चरण नखचन्द्र को ही। किंतु अपने पुनीत प्रवाह के अन्तराल के जगत के देहाभिमानी जीवों के लिये कितना सुन्दर पाठ दे रहे हैं वे!-
एक ओर हरित तृणों का अम्बार लगा है; हरितिमा लह-लह कर रही है। कहीं यूथ की यूथ वीर बहूटियों का साम्राज्य हैं; उनसे अभिनव लालिमा छायी हुई है। फिर कहीं बरसाती छत्ते असंख्य वितान-से बनकर अगणित विश्रामागारों के समान उज्ज्वल आभा का दान कर रहे हैं। इस प्रकार हरित, अरुण एवं समुज्ज्वल ज्योति से विभूषित धरणी की छटा निराली बन गयी है- मानो धरा के वक्षःस्थल पर किसी सम्राट की सेना फैली हुई हो, उनके श्वेत-लोहित आदि वर्णों के अगणित पटगृह सुशोभित हो रहे हों। वास्तव में बात भी ऐसी ही है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।20।10)
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