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ग्रीष्म के समय क्षुद्र स्रोतस्विनी-स्रोत सभी क्षीण हो जाते हैं; वह वेग, वह चञ्चलता उनमें नहीं होती। किंतु जब पावस की अजस्र धाराएँ उनके हृत्तल को परिपूर्ण कर देती हैं, तब वे सहसा उच्छंखृल हो उठते हैं, पथ की मर्यादा को तोड़ कर वे विपथ गामी हो उठते हैं ठीक उनकी भाँति, जिन्होंने देह को ही अपना स्वरूप मान रखा है, मन के संकेत पर ही जो सतत नाचते रहते हैं, इन्द्रियाँ जिन्हें बरबस विषयों की ओर भगाये लिये चलती हैं, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने वाली बुद्धि जिनकी सोयी रहती है। स्पष्ट देख सकते हो, तनिक भी ध्यान देते ही उन देह-इन्द्रियों के अधीन रहने वाले प्राणियों की अवस्था सामने आ जायगी। देखो, जब तक उनके शरीर में शारीरिक शक्ति का, दैहिक ओज का अभाव रहेगा यौवन के मद से वे परिव्याप्त नहीं रहेंगे, धन-सम्पत्ति के लाले पड़े रहेंगे, इनके मद से उनकी आँखें चौंधी हुई न रहेंगी, तब तक उनका जीवन नियन्त्रित रहता है, मर्यादा का उल्लंघन वे नहीं करते। किंतु कहीं दैव का विधान परिवर्तित हुआ, शरीर में बल-वीर्य का संचार हो गया, अनर्गल धन-सम्पत्ति की प्राप्ति हो गयी, फिर तो क्या कहना है- वे न जाने कहाँ से कहाँ बह जाते हैं। मर्यादा टूट जाती है, सुमार्ग छूट जाता है और निर्बाध स्वच्छन्द कुमार्ग पर अग्रसर होते हैं वे। अपने-आप भी नष्ट होते हैं और न जाने कितनों के नाश का हेतु बनते हैं। वर्षा कालीन क्षुद्र नदियों की भी यही दशा है। ग्रीष्म के आतप में जल के अभाव से मर्यादा से रहती हैं, जल पद का प्रवाह उनमें नहीं होता; पर पावस का संयोग होते ही उमड़ चलती है, विपथ गामिनी होकर कितनों को ध्वंस कर देती है।
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