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हाँ, अब जब एक ओर पावस की घटाएँ अम्बुराशि दान करने आयी हैं, कर रही है और इधर नीलसुन्दर उल्लास में भरकर, वर्षा की सम्पूर्ण शोभा निहारने की इच्छा से वन के मानो प्रत्येक भाग में ही भ्रमण कर रहे हों, तब फिर इन स्रोतों में अपरिसीम उल्लास का संचार क्यों न हो। अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर ये भी व्रजपुर की विथियों की ओर क्यों न दौड़ चलें! पथ-अपथ का विचार तो तभी तक है जब तक व्रजेन्द्र नन्दन दृष्टि पथ में नहीं आते; उनका वेणु नाद कर्ण पुटों में प्रविष्ट नहीं होता। जब उनके श्रीअंगों की श्यामल कान्ति नेत्रों में पूरित हो जाती है, वेणु की लहरी श्रवण पथ से हृदय को सिक्त करने लगती है, फिर विचार के लिये अवकाश नहीं रहता। इसीलिये अतिशय वेग से ये भागे जा रहे हैं; कहाँ, किस ओर जा रहे हैं, जाना चाहिये या नहीं, इसका भी भान इन्हें नहीं रहा है। अवश्य ही अपनी जान में तो ये नीलसुन्दर के चरण सरोरुह में ही प्रसरित हो रहे हैं। किंतु प्रपञ्च के जीवों! तुम्हारे लिये तो ये कुछ और ही संदेश दे रहे हैं। उसे हृदय में धारण कर कदाचित ऊपर उठ सको तो अवश्य उठ जाना, व्रजेश तनय की ओर बह चलना। देखो, तुम्हारे यहाँ इस प्रपञ्च में क्या होता है?
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