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वृन्दाकानन के ये स्रोत शुष्क प्राय हो चुके थे। ग्रीष्म के आतप का तो मिस था, वास्तव में नीलसुन्दर इस दिशा में कुछ दिनों से गो चारण करने नहीं पधारे, उन्होंने इनमें अवगाहन नहीं किया, उनके चरण-सरोरुह का स्पर्श इन्हें प्राप्त नहीं हुआ। इसीलिये इनकी लहरियाँ शान्त हो गयी थीं। अपनी सीमा में ये क्रमशः संकुचित होते जा रहे थे। श्रीकृष्णचन्द्र के अदर्शन की ज्वाला इनके हृदय के रस को जला रही थी। अन्यथा वृन्दावन में ग्रीष्म भी आता है सबका सुख वर्धन करने; प्रपातों के कलकल-नाद का, स्रोतों की झर-झर झंकृति का विराम यहाँ कदापि नहीं होता। दूर से ही नीलसुन्दर का वंशी रव इन्हें उनका आगमन सूचित कर देते हैं और ग्रीष्म के मध्याह्न में भी ये हँस-हँस कर अपने प्राणों के देवता का स्वागत करने के लिये मनोरम साज से सज्जित हो उठते हैं। किंतु जब प्राणाराम व्रजेन्द्र नन्दन आये नहीं, आज नहीं आये, दूसरे दिन भी नहीं पधारे, तीसरे दिन भी उनकी वंशी ध्वनि कानन के इस अंश में प्रतिनादित नहीं हुई, तब फिर स्रोत किस उद्देश्य से प्रसरित हों; उनके हृदय की ऊँर्मियाँ किसके चरण-प्रान्त में न्योछावर हों। वे तो क्रमशः क्षीण होंगे ही।
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