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इधर व्रजपुर वासियोे की विशेषतः गोप सुन्दरियों की क्या दशा है, इसे कोई कैसे जाने। वहाँ तो मुञ्जावटी में एक दावानल फूटा था। पर यहाँ व्रज के प्रत्येक गृह में, प्रत्येक गोप सुन्दरी के हृदय का वह भावपुष्प-पल्लवमय मनोहर उद्यान विरहाग्नि की भीषण ज्वाला में धक-धक जल रहा है। नीलसुन्दर का एक क्षण के लिये अदर्शन उन रागमयी पुर-रमणियों की दृष्टि में शत-सहस्र युगों का व्यवधान प्रतीत होने लगता है, उनके प्राण जलने लगते हैं। कदाचित श्रीकृष्णचन्द्र की अखण्ड स्मृति रह-रह कर उनमें प्रत्यक्ष संयोग की भ्रान्ति न उत्पन्न करती रहती तो वे सचमुच उनके वन गमन के अनन्तर सांय काल तक भी जीवन धारण कर पातीं या नहीं- यह निर्णय कर लेना सहज नहीं है। इसीलिये व्रजेन्द्र नन्दन के मुखचन्द्र का दर्शन पाकर एक अप्रतिम परमानन्द सिन्धु उच्छलित हो उठा है उन गोप रामाओं के हृद्देश में। तथा कितनी भाव-विह्वल हो उठी हैं वे, इसे अचिन्त्य सौभाग्यवश कोई देख भले ले; वाग्वादिनी तो इसका एक अल्प-सा अंश भी चित्रण करने से रहीं। अवश्य ही उनके अन्तस्तल की वही रसमयी अनुभूति तरलित होकर प्रतिफलन के रूप में इन शब्दों की ओट से किंचिन्मात्र झलमल-सी कर उठी है, इसमें कोई संदेह नहीं-
- प्रभु मुख पंकज स्वेद मधु, गोरज लगिव पराग।
- तिय मन मधुकर रमत तहँ, पियत उमगि अनुराग॥
- गोपीनां परमानंद आसीद् गोविन्ददर्शने।
- क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्॥[1]
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