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अस्तु, नीलसुन्दर तो अपनी जननी यशोदा के भुजपाश में जा बँधे और जननी उन्हें लेकर अन्तःपुर की ओर चल पड़ीं; किंतु गोप सुन्दरियाँ अब पहले की भाँति नीलसुन्दर के समक्ष, उनके साथ जा नहीं पातीं। एक विचित्र-से शील-संकोच आवरण आ जाता है उनके मन पर, नेत्रों पर। इसीलिये आज भी न जा सकीं। यन्त्र परिचालित-सी हुई सब की सब लौट आयीं अपने-अपने गृह में। पर इससे क्या हुआ? नीलसुन्दर तो उनके समक्ष ही अवस्थित है और वे भावना में तन्मय हो रही है-
- सुधालावण्यमाधुर्यदलिताञ्जनचिक्कणः।
- इन्द्रनीलमणिः किं वा नीलोत्पलरुचिप्रभः।।
- किं वा न व्यतमालोऽपि मेघपुञ्जमनोहरः।
- प्रभा मारकतीकान्तिः सुधालावण्यवारिधिः।।
- पीतवस्त्रपरीधानो वनमालाविभूषितः।
- नानारत्नभूषिताङ्गो नानाकेलिरसाकरः।।
- दीर्घकुञ्चितकेशोऽपि बहुगन्धसुगन्धितः।
- नानापुष्पमालया च चूडादीप्तिर्मनोहरा।।
- श्रीमल्ललाटपाटीरस्तिलकालकशोभितः।
- लीलोन्नतभ्रूविलासकामिनीचित्तमोहनः।।
- घूर्णमानं सुनयनं रक्तनीलोत्पलप्रभम्।
- खगेन्द्रचञ्चुलावण्यसुनासाग्रजसुन्दरः।।
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