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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
76. प्रलम्बासुर-उद्धार
अस्तु, नीलसुन्दर ने शिशु वेशधारी प्रलम्ब को स्नेह से आप्यायित करते हुए यहाँ तक कह दिया-
‘मित्र! आज से तुम्हीं मेरे परम सुहृद हुए। तुम्हें मैं अपनी आँखों में ही रखूँगा। श्रीदामा अब बलराम दादा का अनुसरण करें।’ प्रलम्ब आया है उन पर अपनी चातुरी का विस्तार करने, जिनसे स्वयं विश्वस्रष्टा ब्रह्मा में भी ज्ञान का संचार होता है। अतएव वह मूढ़ समझ नहीं सका श्रीकृष्णचन्द्र की उस उक्ति का तात्पर्य। वह तो क्या समझे, स्वयं समीप में स्थित उनके अभिन्न स्वरूप, साक्षात शेष, अनन्त देव श्रीबलराम भी गन्ध न पा सके कि क्यों आज अभी सहसा, उनके अनुज अपने प्राण-प्रतीक श्रीदाम सखा को उनका अनुयायी बना दे रहे हैं तथा इससे पूर्व कि दाऊ दादा कुछ पूछ बैठें, वह नवागत गोप बालक प्रलम्ब कुछ स्वीकृति या अस्वीकृति की मुद्रा भी प्रदर्शित कर सके, नीलसुन्दर का मेघ-गम्भीर स्वर सर्वत्र गूँज उठा, वे अभिनव कौतुकी क्रीड़ा नायक पुकार उठे- ‘अरे भैयाओ! अब तो पहले हम लोग भली-भाँति बलाबल का निर्णय करके दो दलों में बँट जायँ और तब खेलें।’-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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