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सर्वथा भूल गया है कि वह अपने अतीत के जीवन को। वह हूहू गन्धर्व का पुत्र विजय था। कुसुम-चयन करने आया था चैत्ररथ वन में। यक्ष पति कुबेर के शाप की बात उसे ज्ञात न थी- ‘जो भी मेरे इस उद्यान से पुष्प ग्रहण करेगा, वह देव हो, मानव हो कोई भी हो, असुर बन कर भूतल पर जन्म ग्रहण करेगा।’ दैव प्रेरित विजय ने अनजान में ही पुष्प चयन किया और देखते-देखते ही गन्धर्व-पद से च्युत हो गया। अवश्य ही असुर-देह में अभिनिविष्ट होने से पूर्व उसने कुबेर की शरण ले ली थी तथा यह वरदान भी वह प्राप्त कर चुका था- ‘विनीत गन्धर्व! चिन्ता मत करो! तुम विष्णु भक्त हो, तुम्हारी वृत्तियाँ शान्त हैं। जाओ, द्वापर के अन्त में श्रीबलराम के हस्त कमलों से तुम्हें मुक्ति मिल जायगी। भाण्डीर वन में यमुना-पुलिन पर वे प्रभु तुम्हारे अनादि संसरण को सदा के लिये शान्त कर देंगे, तनिक भी इसमें संदेह नहीं।’ पर इन बातों की अब उसे तनिक भी स्मृति नहीं रही है, किंतु जगन्नियन्ता कैसे विस्मृत हो जायँ। प्रलम्ब उनके दृष्टि पथ में आया चाहे कितना भी भ्रान्त होकर क्यों न आया हो, वे करुणा वरुणालय प्रभु तो भ्रान्त नहीं हैं। वे तो सम्पूर्ण अतीत-अनागत को वर्तमान के रूप में ही नित्य देखते रहते हैं। इसीलिये इस समय यदुवंश विभूषण प्रभु ने प्रलम्ब की मैत्री का अभिनन्दन किया है; उसे इस असुर-देह से निकाल कर दूर बहुत-दूर, प्रकृति के पार ले जाना है उन्हें!-
- तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान् सर्वदर्शन:।
- अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन्॥[1]
- प्रभु सर्बग्य जानि सब बाता।
- ताहि मारिबे कहँ मन राता।।
- करयौ सखा ता कहँ सब जानी।
- मरिहै खल एहि बिधि मन ठानी।।
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