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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
10. व्रज में क्रमशः छहों ऋतुओं का आगमन और श्रीकृष्ण की वर्षगाँठ
पर दो दिन बाद ही मानो जननी की लालसा ने ही उनके पैरों में चलने की शक्ति भर दी। श्रीकृष्ण जननी की अँगुली पकड़कर आँगन में सर्वत्र चलने लगे। अवश्य ही द्वार लाँघने में श्रीकृष्ण को अत्यन्त कठिनता होती-
एक दिन के अन्तर से ही अँगुली छोड़कर स्वतन्त्र भी चलने लगे। पर देहली-लंघन का प्रश्न अभी भी उतना ही कठिन है। आगे-आगे श्रीकृष्ण चलते, पीछे-पीछे व्रजरानी आतीं। किंतु जहाँ द्वार आया कि खड़े हो गये। मुसका-मुसकाकर, जननी का अंचल पकड़कर पार कर देने के लिये मधुर अस्फुट तोतली बोली में बार-बार कहते। पर जननी बल लगाकर चढ़ने के लिये आदेश देतीं। श्रीकृष्ण भी अपना पूरा बल लगाते, पर नहीं ही चढ़ पाते; द्वार के इस पार ही रह जाते। स्वयं भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र का अनन्त बल पता नहीं इस समय कहाँ चला जाता-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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