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किंतु बलराम तो अभी भी वैसे ही हँस रहे हैं। अवश्य ही गर्दभ रूप धारी असुर पुनः आ पहुँचा है उनके अत्यन्त निकट में ही और क्रोध से सर्वथा अधीर हो रहा है वह! पुनः उसने उनकी ओर पीठ कर ली और फिर अत्यन्त क्रोध से पिछले पैरों की दुलत्ती भी चला ही दी। पर इस बार अपने वक्षःस्थल पर उसके पैर आने से पूर्व ही राम ने अपना वाम हस्त आगे बढ़ा दिया; बढ़ा कर उसके पैर के अग्र भाग को पकड़ लिया। धेनुक की कोई अन्य चेष्टा तो अब होने से रही; क्योंकि राम उसे आकाश में उठा कर अलात-चक्र की भाँति बारंबार घुमा रहे थे और वह विवश घूम रहा था। बस, कुछ ही क्षण घूमने में उसके प्राण भी घूम कर बाहर निकल आये तथा उसके जीवन शून्य शरीर को राम ने ताल वृक्ष पर फेंक दिया-
- पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक् स्थित:।
- चरणावपरौ राजन् बलाय प्राक्षिपद् रुषा॥
- स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना।
- चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम्॥[1]
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