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समीप में ही अवस्थित धेनुक के कर्ण रन्घ्रों में एक साथ इतने ताल-फलों के गिरने का घनघोर शब्द प्रविष्ट हो गया। तुरंत ही उसने अपनी हिस्र आँखें फिरा कर इस ओर देखा और दीख पड़े राम-श्याम तथा आनन्द-कोलाहल करते हुए असंख्य गोप-शिशु! अब तो धेनुक के रोष का क्या कहना है! उसके विशाल पर्वताकार गर्दभ-शरीर का रोम-रोम क्रोध से जल उठा। द्रुत गति से वह चल पड़ा उसी ओर, जहाँ बलराम ताल के समीप खड़े हँस रहे हैं उसे आने में कितनी देर लगती। जिस वेग से वह चला है, उससे उसके पदभार से पर्वत के सहित सम्पूर्ण पृथ्वी तल प्रकम्पित जो हो रहा हैं बस, आधे क्षण से पूर्व ही मानो एक प्रकाण्ड पर्वत ही उड़ता-सा आया हो- इस प्रकार वह बलराम के पास आ पहुँचा। और आकर तनिक रुके। यह बात भी नहीं, उस महाबलवान क्रूर-स्वभाव दैत्य ने अपना मुँह फिराया तथा पीछे के दोनों पैरों को उठा कर एक भरपूर दुलत्ती रोहिणी नन्दन के वक्षःस्थल पर उसने मार ही तो दी। साथ ही यह प्रहार कर चुकने पर अत्यन्त कर्कश स्वर में वह रेंक उठा और रेंकता हुआ ही चारों ओर घूमने लगा। दूसरी दुलत्ती प्रहार की ताक में धेनुक ने दुष्टता की सीमा पार कर ली!-
- फलानां पततां शब्दं निशभ्यासुररासभ:।
- अभ्यधावत क्षितितलं सनगं परिकम्पयन्॥
- समेत्य तरसा प्रत्यग् द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली।
- निहत्योरसि काशब्दं मुञ्चन् पर्यसरत् खल:॥[1]
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