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बालकों के स्वर में अद्भुत उत्साह है, पूर्ण आशा भरी है कि उनकी वह योजना उनके बलराम, उनका कन्नू- दोनों के द्वारा स्वीकृत हो कर ही रहेगी और वे अविराम कहते चले जा रहे हैं- ‘भैया राम, कितना सुख तुम हमको देते हो! और ओह! कितना बल है तुम्हारी भुजाओं में। तथा भैया रे श्रीकृष्ण! तुम्हारा तो स्वभाव ही है दुष्टों का दमन करते रहना। इसीलिये आज एक बात बताता हूँ, तुम दोनों सुन लो। देखो, यहाँ से कुछ ही दूर पर ताल-वन नामक एक सुविस्तृत वन है हो! और क्या कहें, उसमें न जाने ताल-वृक्षों की कितनी पंक्तियाँ सुशोभित हैं। इतना ही नहीं, ताल के पके फल वहाँ गिरते ही रहते हैं, पहले से गिरे हुए भी अगणित फल वहाँ पड़े रहते हैं। किंतु यह सब होकर भी क्या हुआ! वहाँ तो एक अत्यन्त हिंस्र-स्वभाव का दैत्य रहता है। धेनुक उसका नाम है। उसी दुष्ट ने सम्पूर्ण फलों पर अपना अधिकार जमा रखा है। बलराम भैया! और प्राणसखा श्रीकृष्ण! सुनो, वह असुर गधे का रूप धारण किये रहता है। महाबलशाली है वह, और उसके साथ ही उसी के समान पराक्रमशाली उसके अन्य असंख्य भाई-बन्धु भी निवास करते हैं हमारे शत्रु नाशक भैयाओ! मनुष्यों को तो मारकर वह खा जाता हैं उस नर-मांस भक्षी राक्षस के भय से मनुष्य, पशु-पक्षी सबने ही उस वन को छोड़ दिया; कोई भी वहाँ नहीं जाता, ताल फलों का लाभ नहीं ले पाता; जबकि ऐसे सुस्वादु एवं सद्गन्ध युक्त फल आज तक किसी ने खाये ही नहीं!
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