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इस प्रकार अबसे गीष्म के अवसान तक, पुनः ग्रीष्म के आगमन तक एवं पावस की अवधि समाप्त प्राय होने तक श्रीकृष्णचन्द्र की क्रीड़ा निर्बाध चलती रही। व्रज में, वृन्दाकानन में कहीं भी राक्षसों के द्वारा कोई उत्पात न हुआ। हाँ, इसी वर्षा ऋतु के अन्त में एक दिन जब मेघ पर्याप्त रूप से बरस चुके थे, विविध वन क्रीड़ाओं से श्रान्त होकर श्रीकृष्णचन्द्र एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, गायें समीप ही तृण चर रही थीं। गोप शिशुओं ने अग्रज बलराम एवं नीलसुन्दर के समीप एक नवीन प्रस्ताव रखा। बलराम एवं श्याम के प्रधान सखा श्रीदाम गोप ने तथा सुबल एवं स्तोक कृष्ण आदि ने हँस-हँस कर, अतिशय प्रेम के सहित समीप आकर अपना मनोभाव बताया-
- श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयो सखा:।
- सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपा: प्रेम्णेदमब्रुवन्॥[1]
- श्रीदामा एक सखा सयानौ।
- सुबल आदि प्रिय अपर सुजानौ।।
- बोले बचन बिहँसि सुख मानी।
- कृपासिंधु सौं अति सनमानी।।
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