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जो हो, अब कालिय का गर्व शमित हो चुका था। उसकी शारीरिक शक्ति को पूर्णतया क्षीण हो ही चुकी थी; निराश मन भी चिर-निद्रा में प्रविष्ट होने चला। किंतु ठीक यही अपेक्षित क्षण जो है, अवसर है श्रीकृष्ण के चरण-नख-चन्द्रिका के आलोक से अन्तस्तल उद्भासित हो उठने का। और यही हुआ। कालिय के मन, बुद्धि, इन्द्रियों एवं प्राणों मेंं एक ज्योति-सी जाग उठी और उसने उसी प्रकाश में व्रजेन्द्र कुलचन्द्र के स्वरूप को पहचान लिया। ‘पर हाय! शरीर में तो अब शक्ति नहीं कि वह स्पन्दित भी हो सके, श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-सरोजों में न्योछावर हो सके! अब क्या हो! बहुत विलम्ब हो गया .............!’ फिर भी अन्तिम श्वास की-सी अवस्था में कालिय मन-ही-मन पुकार उठा-
- सरन-सरन अब मरत हौं, मैं नहिं जान्यौ तोहि॥
- स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुषं पुराणं नारायणं तमरणं मनसा जगाम॥[1]
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