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साथ ही उस ओर नाग-वनिताओं पर योगमाया के द्वारा प्रसारित वह आवरण भी सहसा हट गया। युग-युग से जिन व्रजेन्द्र नन्दन को वे अपना मन-प्राण समर्पित कर चुकी थीं, प्राणों की उत्कण्ठा लिये जिनकी प्रतीक्षा कर रही थीं, वे ही जब उन के आवास में स्वयं पधारे, तब उन सबने-दर्शन से कृतार्थ होकर भी उन्हें नहीं पहचाना। हाँ, इस समय अकस्मात अपने-आप न जाने कैसे हृत्तल आलोकित हो उठा और उन सबने देख लिय, जान लिया ‘हमारे चिरजीवन के आराध्य प्राणाधार ही तो वहाँ विराजित हो रहे हैं।’ किंतु पतिदेव आह! वे तो महाप्रयाण की ओर अग्रसर हो रहे हैं। नाग वधुएँ तत्क्षण उपस्थित हो जाती हैं श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-प्रान्त में ही-
- गति सबल अबल स्वाँसानि बल, हहरि सुहिय लहरातु घट।
- लखि बिकल ब्याल काली सिथिल, तब आईं अबला निकट।।
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