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यह आवश्यक नहीं कि एक रस की धारा सर्वत्र समान रूप से ही परिलक्षित हो। आलम्बन के अनुरूप ही यह ऋजु या वक्र प्रसरित होगी, धारा की सान्द्रता भी आलम्बन के अनुरूप ही विकसित होगी। तथा यह नियम है- जहाँ सान्द्रता की मात्रा जितनी अधिक है, धैर्य की सीमा वहाँ उतनी ही अधिक संकुचित रहेगी। इस स्तोक में सख्य-रस की कोमलतम परिणति की नित्य प्रतिष्ठा है। अत एव सान्द्रता का अपेक्षाकृत अधिक विकास इसमें अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त आयु में वह प्रायः सबसे छोटा है। साथ नन्दन-पुत्र[1] है वह। यह पारिवारिक सम्बन्ध भी उसके अपनत्व के सूत्र को मृदुल बना देता है। भला, उसके प्राण कब तक सहें अपने कन्हैया भैया पर प्रतिद्वन्द्वी शिशु के द्वारा बारंबार होने वाले मल्ल युद्ध के इस आघात को। इसलिये आखिर वह गरज ही उठा- ‘अरे ओ सुबल भैया! दाऊ दादा! इन उद्दण्डों को तो छोड़ो, इन्हें तो लाज नहीं रही। क्या तुम्हें भी नहीं दीखता- ओह रे, क्या दशा कर दी इन सबों ने मेरे कन्हैया भैया की!’
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