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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
61. श्रीकृष्ण का वृन्दावन-विहार
श्रीकृष्णचन्द्र के अतिशय प्रिय पात्र, देखने में उनकी ही प्रतिमूर्ति स्तोक की यह गर्जना एक साथ सबके कर्ण कुहरों में निनादित हो उठी, सबका ध्यान उस ओर चला ही गया और फिर- ‘ओह! सचमुच भैया रे कन्नू! तू तो बहुत ही थक गया रे!’- इस प्रेमपूरित विचित्र-सी ग्लानि के प्रवाह में एक साथ सब-के-सब बह गये। मल्ल क्रीड़ा जहाँ-की-तहाँ, ज्यों-की-त्यों, स्थगित हो गयी। वास्तव में श्रीकृष्णचन्द्र के केश पुनः बिखर कर अस्त-व्यस्त हो चुके थे। सम्पूर्ण श्यामल कलेवर धर्माक्त हो चुका था। श्रान्तिजन्य श्वास-प्रश्वास की गति पर्याप्त तीव्र है, ये किसी से छिपा न रहा। अब तो समस्त शिशुओं के प्राण तड़फड़-तड़फड़ कर उठे- ‘कैसे एक क्षण में ही श्रीकृष्णचन्द्र की यह सम्पूर्ण श्रान्ति हर ली जाय।’ इस समय विलम्ब का तनिक भी अवकाश नहीं है। मण्डली भद्र, भद्र वर्द्धन ने नीलसुन्दर की भुजाएँ पकड़ लीं और चल पड़े उसे ले कर समीपवर्ती अश्वत्य की सघन शीतल छाया में। गोभट, कुलवीर आदि सहृद वर्ग के सखा उनके पीछे चले। श्रीकृष्णचन्द्र तो एक हैं, पर साथ ही यह नितान्त ध्रुव सत्य है- वह देखो, विशाल, वृषभ, जम्बी, देवप्रस्थ भी उन्हें दूसरी ओर उस वट के नीचे ले आये। वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड़, मणिबन्ध आदि शिशुओं ने उस अन्य तरुवर का आश्रय लिया और उनके साथ भी वास्तव में एक श्रीकृष्णचन्द्र हैं। चन्दन, कुन्द, कलिन्द आदि उस कदम्ब श्रेणी की ओर अग्रसर हो रहे हैं और वे भी एक श्रीकृष्णचन्द्र को चारों ओर से घेरे हुए चल रहे हैं। इसी प्रकार दाम, वसुदाम, श्रीदाम का दल, किंकणी, स्तोक कृष्ण, अंश, भद्रसेन आदि की मण्डली, सुबल, अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त की गोष्ठी सभी जा रहे हैं अपने साथ एक-एक श्रीकृष्णचन्द्र को ले कर- कोई उस अशोक की छाया में, कोई आम्र के उस सुन्दर-से आलवाल (गट्टे) के समीप, कोई उस प्लक्ष तरु के बृहत आटोप के नीचे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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