गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूपदर्शनयोग
तत्रैकस्थं जगतंकृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा। वहाँ इस देवाधिदेव के शरीर में पांडव ने अनेक प्रकार से विभक्त हुआ समूचा जगत एक रूप में विद्यमान देखा। फिर आश्चर्यचकित और रोमांचित हुए धनंजय सिर झुका, हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले- अर्जुन बोले- हे देव! आपकी देह में मैं देवताओं को, भिन्न-भिन्न प्रकार के सब प्राणियों के समुदायों को, कमलासन पर विराजमान ईश ब्रह्मा को, सब ऋषियों को और दिव्य सर्पों को देखता हूँ। आपको मैं अनेक हाथ, उदर, मुख और नेत्रयुक्त अनंत रूपवाला देखता हूँ। आपका अंत नहीं है, न मध्य न आपका आदि है। विश्वेश्वर! आपके विश्व रूप का मैं दर्शन कर रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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