गीता माता -महात्मा गांधी
9 : भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग
मेरा लोभ तो यह है कि हर एक हिन्दी भाषा - भाषी इस गीता को पढ़े, विचारे और वैसा आचरण करे। इसके विचार का सरल उपाय यह है कि संस्कृत का ख्याल किये बिना ही इसके अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाये और फिर तदानुसार आचरण किया जाये। मसलन जो यह कहते हैं कि गीता तो अपने-पराये का भेद रखे बिना दुष्टों को संहार करने की शिक्षा देती है, उन्हें अपने दुष्ट मामा-पिता या अन्य प्रियजनों का संहार शुरू कर देना चाहिए। पर वे वैसा तो कर नहीं सकते तो फिर जहाँ संहार का जिक़्र आता है, वहाँ उसका कोई दूसरा अर्थ होना संभव है, यह बात पाठकों को सहज ही सूझेगी। अपने-पराये के बीच भेद न रखने की बात तो गीता के पन्ने-पन्ने में आती हैं। पर यह कैसे हो सकता है? यों सोचते-सोचते हम इस निश्चय पर पहुँचेंगे कि अनासक्तिपूर्वक सब काम करना ही गीता की प्रधान ध्वनि है; क्योंकि पहले ही अध्याय में अर्जुन के सामने अपने-पराये का झगड़ा खड़ा होता है। गीता के प्रत्येक अध्याय में यह बताया गया है कि ऐसा भेद मिथ्या और हानिकारक है। गीता को मैने ‘अनासक्तियोग‘ का नाम दिया है। यह क्या है, कैसे सिद्ध हो सकता है, अनासक्ति के लक्षण क्या हैं आदि तमाम बातों का जवाब इस पुस्तक में है। गीता का अनुसरण करते हुए मै इस युद्ध को प्रारंभ किये बिना न रह सका एक मित्र के शब्दों में, 'मेरे मन का यह युद्ध धर्मयुद्ध है' और ठीक इस आखिरी फैसले के मौके पर इस पुस्तक का प्रकाशित होना मेरे लिए शुभ शकुन है। 22 मई, 1930 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो ‘अनासक्तियोग' नाम से छपा है।
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