गीता माता -महात्मा गांधी
14 : गीता जी
तुम्हें गीता के सतत अभ्यास से सब चिंताओं से मुक्त रहना सीखना है। हम सबकी फ़िक्र रखने वाला ईश्वर बैठा है। तब यह बोझ व्यर्थ ही हम क्यों ढोते फिरें? हमें तो अपने हिस्से आया हुआ काम करते रहना है। ज्यों-ज्यों श्रद्धा बढ़ेगी त्यों-त्यों बुद्धि बढ़ेगी। गीता तो यह सिखाती मालूम देती है कि बुद्धियोग ईश्वर कराता है। श्रद्धा बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य है। यहाँ श्रद्धा और वृद्धि का वुद्धि का अर्थ समझना रहता है। यह समझ भी व्याख्या करने से नहीं आती; बल्कि सच्ची नम्रता का विकास करने से आती है। जो यह मानता है कि वह सब कुछ जानता है, वह कुछ नहीं जानता। जो मानता है कि वह कुछ नहीं जानता, उसे यथासमय ज्ञान प्राप्त हो जाता है। भरे हुए घड़े में गंगाजल ईश्वर भी नहीं भर सकता। इसलिए हमें तो ईश्वर के सामने रोज ख़ाली हाथ ही खड़े होना है। हमारा अपरिग्रह व्रत भी यही बताता है। गीता जी जो धर्म सिखाती है, उसे समझो और उसके अनुसार अपना आचरण रखो। गीता का मध्यबिन्दु क्या है, उसका निश्चय कर लेना। फिर प्रत्येक श्लोक का अर्थ, जो अपने जीवन में उपयोगी है, उसको आचार में रखना। यह सबसे बड़ी टीका है और यही गीता का सच्चा अभ्यास है। गीता का मध्यबिन्दु अनासक्ति ही है, इसमें थोड़ा भी शक नहीं होना चाहिए। दूसरे किसी कारण से गीता नहीं लिखी गई, उसमें कुछ मुझे भी शंका नहीं है और मैं तो यह अनुभव से जानता हूँ कि बगैर अनासक्ति के न मनुष्य सत्य का पालन कर सकता है, न अहिंसा का। अनासक्त होना कठिन है, इसमें सन्देह नहीं; लेकिन उसमें आश्चर्य क्या है? सत्यनारायण का दर्शन करने में परिश्रम तो होना ही चाहिए और बगैर अनासक्ति के यह दर्शन अशक्य है। 'महादेवभाईनी डायरी’, भाग 2, पृष्ठ 191 31 अक्तूबर,1932 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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