गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
छठा अध्याय
ध्यानयोग
श्रीभगवानुवाच श्री भगवान बोले- कर्मफल का आश्रय लिये बिना जो मनुष्य विहित कर्म करता है वह संन्यासी है, वह योगी है। जो अग्नि का और समस्त क्रियाओं का त्याग करके बैठ जाता है वह नहीं। टिप्पणी- अग्नि से तात्पर्य है साधन मात्र। जब अग्नि के द्वारा होम होते थे तब अग्नि की आवश्यकता थी। इस युग में यदि चरखे को सेवा का साधन मानें तो उसका त्याग करने से संन्यासी नहीं हुआ जा सकता। यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। हे पांडव! जिसे संन्यास कहते हैं उसे तू योग जान। जिसने मन के संकल्पों को त्यागा नहीं वह कभी योगी नहीं हो सकता। आरुरुक्षोर्मुनेयोंगं कर्म कारणमुच्यते। योग साधने वाले का कर्म साधन है, जिसने उसे साधा है उसे शांति साधन है। टिप्पणी- जिसकी आत्मशुद्धि हो गई है, जिसने समत्व सिद्ध कर लिया है, उसे आत्मदर्शन सहज है। इसका यह अर्थ नहीं है कि योगारूढ़ को लोक-संग्रह के लिए भी कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती। लोक-संग्रह के बिना तो वह जी ही नहीं सकता। अत: सेवा-कर्म करना भी उसके लिए सहज हो जाता है। वह दिखावे के लिए कुछ नहीं करता।[1] यदा हि नन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। जब मनुष्य इंद्रियों के विषयों में या कर्म में आसक्त नहीं होता और संकल्प तज देता है तब वह योगारूढ़ कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 3, 4 अध्याय 5, 2 से मिलाइए
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