गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
नवां अध्याय
सोमप्रभात गत अध्याय के अंतिम श्लोक में योगी का उच्च स्थान बतला देने पर भगवान के लिए अब भक्ति की महिमा बतलाना ही बाकी रह जाता है, क्योंकि गीता का योगी शुष्क ज्ञानी नहीं है, न ब्रह्मचारी भक्त ही। गीता का योगी ज्ञान और भक्तिमय अनासक्त कर्म करने वाला है। अत: भगवान कहते हैं- तुझमें द्वेष नहीं है, इससे तुझे मैं ग्रह्य ज्ञान कहता हूँ कि जिसे पाकर तेरा कल्याण होगा। यह ज्ञान सर्वोपरि है, पवित्र है और आचार में अनायास लाया जा सकने योग्य है। जिसे इसमें श्रद्धा नहीं होती, वह मुझे नहीं पा सकता। मेरे स्वरूप को मनुष्य- प्राणी इंद्रियों द्वारा नहीं पहचान सकते, तथापि इस जगत में वह व्यापक है। जगत उसके आधार पर स्थित है। वह जगत के आधार पर नहीं है। फिर यों भी कहा जाता है कि ये प्राणी मुझमें नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूँ यद्यपि मैं उनकी उत्पत्ति का कारण हूँ और उनका पोषण कर्त्ता हूँ। वे मुझमें नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूं, क्योंकि वे अज्ञान में रहने के कारण मुझे जानते नहीं हैं, उसमें भक्ति नहीं है। तू समझ कि यह मेरा चमत्कार है। पर मैं प्राणियों में नहीं हूँ , ऐसा जान पड़ता है, तथापि वायु की भाँति मैं सर्वत्र फैला हुआ हूँ और सारे जीव युग का अंत होने पर लय हो जाते हैं और आरंभ होने पर फिर जन्मते हैं। इन कर्मों का कर्त्ता होने पर भी वह मुझे बंधन-कारक नहीं है, क्योंकि उनमें मुझे आसक्ति नहीं है, मैं उसमें उदासीन हूँ। वे कर्म होते रहते हैं, क्योंकि यह मेरी प्रकृति है, मेरा स्वभाव है। पर ऐसा जो मैं हूँ उसे लोग पहचानते नहीं हैं, इसलिए वे नास्तिक बने रहते हैं। मेरे अस्तित्व से ही इन्कार करते हैं। ऐसे लोग झूठे हवाई महल बनाते रहते हैं। उनके कर्म भी व्यर्थ होते हैं और वे अज्ञान से भरपूर होने के कारण आसुरी वृत्ति वाले होते हैं। पर दैवी वृत्ति वाले अविनाशी और सिरजनहार जानकर, मुझे भजते हैं। वे दृढ़-निश्चयी होते हैं, नित्य प्रयत्नवान रहते हैं, मेरा भजन-कीर्तन करते और मेरा ध्यान धरते हैं। इसके सिवा कितने ही मुझे एक ही मानने वाले हैं। कारण बहुरूप से मानने वाले भिन्न गुणों को भिन्न रूप में देखते हैं, पर इन सबको तू भक्त जान। यज्ञ का संकल्प मैं, यज्ञ मैं, पितरों का आधार मैं, यज्ञ की वनस्पति मैं, आहुति मैं, मंत्र, हविष्य मैं, अग्नि मैं और जगत का पिता मैं, माता मैं, जगत को धारण करने वाला मैं, पिता- मह मैं, जानने योग्य भी मैं, ॐकार मंत्र मैं, ऋग्वेद, सामवेद, युजर्वेद मैं, गति मैं, पोषण मैं, प्रभु मैं, साक्षी मैं, आश्रय मैं, कल्याण चाहने वाला भी मैं, उत्पत्ति और नाश मैं, सर्दी-गर्मी मैं, सत और असत भी मैं हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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