गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूपदर्शनयोग
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च मुकुटधारी, गदाधारी, चक्रधारी, तेज के पुंज, सर्वत्र जगमगाती ज्योति वाले, साथ ही कठिनाई से दिखाई देने वाले, अपरिमित और प्रज्वलित अग्नि किंवा सूर्य के समान भी दिशाओं में देदीप्यमान आपको मैं देख रहा हूँ। त्वमक्षरं परमं वेदित्व्यं आपको मैं जानने योग्य परम अक्षररूप, इस जगत का अंतिम आधार, सनातन धर्म का अविनाशी रक्षक और सनातन पुरुष मानता हूँ। अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य- जिसका आदि, मध्य या अंत नहीं है, जिसकी शक्ति अनंत है, जिसके अनंत बाहु हैं, जिसके सूर्य-चंद्ररूपी नेत्र हैं, जिसका मुख प्रज्वलित अग्नि के समान है और जो अपने तेज से इस जगत को तपा रहा है, ऐसे आपको मैं देख रहा हूँ। द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि आकाश और पृथ्वी के बीच के इस अंतर में और समस्त दिशाओं में आप ही अकेले व्याप्त हो रहे हैं। हे महात्मन! यह आपका अद्भुत उग्र रूप देख कर तीनों लोक थरथराते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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