गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 30

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
ग्‍यारहवां अध्‍याय

सोमप्रभात
12-1-31

अर्जुन ने विनय की, ʻʻभगवान, आपने मुझे आत्‍मा के विषय में जो वचन कहे, उससे मेरा मोह दूर हो गया है। आप ही सब हैं, आप ही कर्त्ता हैं, आप ही संहर्ता हैं, आप नाशरहित हैं। यदि संभव हो अपने ईश्‍वरीय रूप का दर्शन मुझे कराइये।ʼʼ

भगवान बोले, ʻʻमेरे रूप हजारों हैं और अनेक रंगवाले हैं। उसमें आदित्य, वसु, रुद्र इत्‍यादि समाये हुए हैं। मुझमें सारा जगत - चर और अचर समाया हुआ है। यह रूप तू अपने चर्म-चक्षुओं से नहीं देख सकता। अत: मैं तुझे दिव्‍य चक्षु देता हूं, उनके द्वारा तू देख।ʼʼ

संजय ने धृतराष्‍ट्र से कहा - "हे राजन, भगवान ने अर्जुन को यह कहकर अपना जो अद्भुत रूप दिखाया, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हम लोग नित्‍य एक सूर्य देखते हैं, पर ख्याल कीजिये कि ऐसे हजारों सूर्य नित्‍य उगें तो उनका तेज जैसा, होगा, उससे भी अधिक यह तेज चकाचौंध पैदा करने वाला था। इसके आभूषण और वस्‍त्र भी ऐसे ही दिव्‍य थे। उसके दर्शन करके अर्जुन के रोएं खड़े हो गये, उसका सिर चकराने लगा और कांपते-कांपते वह स्‍तुति करने लगा:

हे देव ! आपकी इस विशाल देह में मैं तो सब कुछ और सब किसी को देखता हूँ। ब्रह्मा उसमें हैं, महादेव उसमें है, उसमें ऋषि हैं, सर्प हैं, आपके हाथ-मुंह का गिनना कठिन है। आपका आदि नहीं है, अंत नहीं है, मध्‍य नहीं है। आपका रूप मानो तेज का सुमेरू है। देखते आंखें चौंधिया जाती हैं, सुलगते हुए अंगारों की भाँति आप झलक रहे हैं और तप रहे हैं। आप ही जगत के आधार हैं, आप ही पुराण-पुरुष हैं, आप ही धर्म के रक्षक हैं।


जहाँ देखता हूं, वहाँ आपके अवयव दिखाई दे रहे हैं। सूर्य-चंद्र तो आपकी आंखों-सरीखे जान पड़ते हैं। आपने ही इस पृथ्वी और आकाश को व्‍याप्‍त कर रखा है। आपका तेज सारे जगत को तपा रहा है। यह जगत थरथरा रहा है। देव, ऋषि, सिद्ध इत्‍यादि सब हाथ जोड़कर कांपते हुए आपकी स्‍तुति कर रहे हैं। यह विराट रूप और यह तेज देखकर मैं तो व्‍याकुल हो गया हूं, शांति और धैर्य छूटा जा रहा है।

हे देव ! प्रसन्‍न होइये। आपकी दाढ़ें विकराल हैं, आपके मुंह में, जैसे दीपक पर पतंगे गिरते हैं, वैसे इन लोगों को गिरते देख रहा हूँ और आप उनको चूर कर रहे हैं। यह उग्र रूप आप कौन हैं? आपकी प्रवृत्ति को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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