गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
ग्यारहवां अध्याय
सोमप्रभात अर्जुन ने विनय की, ʻʻभगवान, आपने मुझे आत्मा के विषय में जो वचन कहे, उससे मेरा मोह दूर हो गया है। आप ही सब हैं, आप ही कर्त्ता हैं, आप ही संहर्ता हैं, आप नाशरहित हैं। यदि संभव हो अपने ईश्वरीय रूप का दर्शन मुझे कराइये।ʼʼ भगवान बोले, ʻʻमेरे रूप हजारों हैं और अनेक रंगवाले हैं। उसमें आदित्य, वसु, रुद्र इत्यादि समाये हुए हैं। मुझमें सारा जगत - चर और अचर समाया हुआ है। यह रूप तू अपने चर्म-चक्षुओं से नहीं देख सकता। अत: मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूं, उनके द्वारा तू देख।ʼʼ संजय ने धृतराष्ट्र से कहा - "हे राजन, भगवान ने अर्जुन को यह कहकर अपना जो अद्भुत रूप दिखाया, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हम लोग नित्य एक सूर्य देखते हैं, पर ख्याल कीजिये कि ऐसे हजारों सूर्य नित्य उगें तो उनका तेज जैसा, होगा, उससे भी अधिक यह तेज चकाचौंध पैदा करने वाला था। इसके आभूषण और वस्त्र भी ऐसे ही दिव्य थे। उसके दर्शन करके अर्जुन के रोएं खड़े हो गये, उसका सिर चकराने लगा और कांपते-कांपते वह स्तुति करने लगा: हे देव ! आपकी इस विशाल देह में मैं तो सब कुछ और सब किसी को देखता हूँ। ब्रह्मा उसमें हैं, महादेव उसमें है, उसमें ऋषि हैं, सर्प हैं, आपके हाथ-मुंह का गिनना कठिन है। आपका आदि नहीं है, अंत नहीं है, मध्य नहीं है। आपका रूप मानो तेज का सुमेरू है। देखते आंखें चौंधिया जाती हैं, सुलगते हुए अंगारों की भाँति आप झलक रहे हैं और तप रहे हैं। आप ही जगत के आधार हैं, आप ही पुराण-पुरुष हैं, आप ही धर्म के रक्षक हैं।
हे देव ! प्रसन्न होइये। आपकी दाढ़ें विकराल हैं, आपके मुंह में, जैसे दीपक पर पतंगे गिरते हैं, वैसे इन लोगों को गिरते देख रहा हूँ और आप उनको चूर कर रहे हैं। यह उग्र रूप आप कौन हैं? आपकी प्रवृत्ति को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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