गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
अठारहवां अध्याय
यरवदा मंदिर पिछले सोलह अध्यायों के मनन के बाद भी अर्जुन के मन में शंका बनी रह जाती है; क्योंकि गीता का संन्यास उसे प्रचलित संन्यास से भिन्न लगता है। उसे लगता है, त्याग और संन्यास दो अलग-अलग चीजें हैं क्या! इस शंका का निवारण करते हुए भगवान इस अंतिम अध्याय में गीता-शिक्षण का सार देते हैं। कितने ही कर्मों में कामना भरी होती है; अनेक प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अनेक उद्यम रचता है। यह काम्य कर्म है। अन्य आवश्यक और स्वाभाविक कर्म हैं, जैसे सांस लेना, देह की रक्षा भर को खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना सोना इत्यादि। और तीसरा कर्म पारमार्थिक है। इनमें से काम्य कर्म का त्याग गीता का संन्यास है और कर्ममात्र के फल का त्याग गीता-मान्य त्याग है। कह सकते है कि कर्ममात्र में कुछ दोष तो अवश्य हैं ही, तथापि यज्ञार्थ अर्थात परोपकारार्थ कर्म का त्याग विहित नहीं है। यज्ञ में दान और तप आ जाते हैं; पर परमार्थ में भी आसक्ति, मोह नहीं होना चाहिए, अन्यथा उसमें बुराई के घुस आने की संभावना है। मोहवश नियत कर्म का त्याग तामस त्याग है। देह के कष्ट के ख्याल से किया हुआ त्याग राजस है; पर सेवा-कार्य करने की भावना से, बिना फल की इच्छा का त्याग सच्चा सात्त्विक त्याग है। अत: यहाँ कार्य मात्र का त्याग नहीं है, बल्कि कर्तव्य- कर्म के फल का त्याग है और दूसरे अर्थात काम्य कर्म का त्याग तो है ही। ऐसे त्यागी को शंकाएं नहीं उठती। उसकी भावना शुद्ध होती है और वह सुविधा-असुविधा का विचार नहीं करता।
और कर्म के विषय में मोह क्या? अपने कर्त्तापन का अभिमान मिथ्या है। कर्म मात्र की सिद्धि में पांच कारण होते हैं - स्थान, कर्त्ता, साधन, क्रियाएं और यह सब होने पर भी अंतिम दैव है। यह समझकर मनुष्य को अभिमान का त्याग करना चाहिए। अहंता छोड़कर कुछ भी करने वाले के बारे में कहा जा सकता है कि वह करते हुए भी नहीं करता है; क्योंकि उसे वह कर्म बंधन-कर्त्ता नहीं होता। ऐसे निराभिमान शून्यवत बने हुए मनुष्य के विषय में कह सकते हैं कि यह मारते हुए भी नहीं मारता है। इसके मानी यह नहीं होते कि कोई मनुष्य शून्यवत होते हुए भी हिंसा करता है और अलिप्त रहता है, निराभिमानी को हिंसा करने का प्रयोजन ही क्या है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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