गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 42

गीता माता -महात्मा गांधी

Prev.png
गीता-बोध
अठारहवां अध्‍याय

यरवदा मंदिर
21-2-32

पिछले सोलह अध्‍यायों के मनन के बाद भी अर्जुन के मन में शंका बनी रह जाती है; क्‍योंकि गीता का संन्‍यास उसे प्रचलित संन्‍यास से भिन्‍न लगता है। उसे लगता है, त्‍याग और संन्‍यास दो अलग-अलग चीजें हैं क्‍या!

इस शंका का निवारण करते हुए भगवान इस अंतिम अध्‍याय में गीता-शिक्षण का सार देते हैं।

कितने ही कर्मों में कामना भरी होती है; अनेक प्रकार की इच्‍छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्‍य अनेक उद्यम रचता है। यह काम्‍य कर्म है। अन्‍य आवश्‍यक और स्‍वाभाविक कर्म हैं, जैसे सांस लेना, देह की रक्षा भर को खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना सोना इत्‍यादि। और तीसरा कर्म पारमार्थिक है। इनमें से काम्‍य कर्म का त्‍याग गीता का संन्‍यास है और कर्ममात्र के फल का त्‍याग गीता-मान्‍य त्‍याग है।

कह सकते है कि कर्ममात्र में कुछ दोष तो अवश्‍य हैं ही, तथापि यज्ञार्थ अर्थात परोपकारार्थ कर्म का त्‍याग विहित नहीं है। यज्ञ में दान और तप आ जाते हैं; पर परमार्थ में भी आसक्ति, मोह नहीं होना चाहिए, अन्‍यथा उसमें बुराई के घुस आने की संभावना है।

मोहवश नियत कर्म का त्‍याग तामस त्‍याग है। देह के कष्‍ट के ख्याल से किया हुआ त्‍याग राजस है; पर सेवा-कार्य करने की भावना से, बिना फल की इच्‍छा का त्‍याग सच्‍चा सात्त्विक त्‍याग है। अत: यहाँ कार्य मात्र का त्‍याग नहीं है, बल्कि कर्तव्‍य- कर्म के फल का त्‍याग है और दूसरे अर्थात काम्‍य कर्म का त्‍याग तो है ही। ऐसे त्‍यागी को शंकाएं नहीं उठती। उसकी भावना शुद्ध होती है और वह सुविधा-असुविधा का विचार नहीं करता।


जो कर्म-फल का त्‍याग नहीं करते हैं, उन्‍हें तो अच्‍छे-बुरे फल भोगने ही पड़ते हैं। इससे वे बंधन में पड़े रहते हैं। फल- त्‍यागी बंधनमुक्‍त हो जाता है।

और कर्म के विषय में मोह क्‍या? अपने कर्त्तापन का अभिमान मिथ्‍या है। कर्म मात्र की सिद्धि में पांच कारण होते हैं - स्‍थान, कर्त्ता, साधन, क्रियाएं और यह सब होने पर भी अंतिम दैव है।

यह समझकर मनुष्‍य को अभिमान का त्‍याग करना चाहिए। अहंता छोड़कर कुछ भी करने वाले के बारे में कहा जा सकता है कि वह करते हुए भी नहीं करता है; क्‍योंकि उसे वह कर्म बंधन-कर्त्ता नहीं होता। ऐसे निराभिमान शून्‍यवत बने हुए मनुष्‍य के विषय में कह सकते हैं कि यह मारते हुए भी नहीं मारता है। इसके मानी यह नहीं होते कि कोई मनुष्‍य शून्‍यवत होते हुए भी हिंसा करता है और अलिप्‍त रहता है, निराभिमानी को हिंसा करने का प्रयोजन ही क्‍या है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः