गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
अर्जुन उवाच हे महाबाहो! हे हृषीकेश! हे केशिनिषूदन! संन्यास और त्याग का पृथक- पृथक रहस्य मैं जानना चाहता हूँ। श्रीभगवानुवाच काम्य[1] कर्मों के त्याग को ज्ञानी संन्यासी के नाम से जानते हैं। समस्त कर्मों के फल के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं। त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण:। कितने ही विचारवान पुरुष कहते हैं कि कर्म पात्र दोषमय होने के कारण त्यागने योग्य है। दूसरों का कथन है कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है। निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम। हे भरतसत्तम! इस त्याग के विषय के मेरा निर्णय सुन। हे पुरुष व्याघ्र! त्याग का तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कामना से उत्पन्न हुए
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