गीता माता -महात्मा गांधी
11 : गीता और रामायण
एक समय था, जब रामायण का नाम सुनते ही जी घबराता था, लेकिन आज तो उसके पन्ने-पन्ने में रस पा रहा हूँ। एक ही पृष्ठ को पांच-पांच बार पढ़ता हूं, फिर भी दिल ऊबता नहीं। कागभुशुण्ड जी की जिस कोशिश के कारण मेरे दिल में तुलसी-रामायण के प्रति घृणा पैदा हो गई थी और वह बुरी लगती थी, वही आज सबसे अच्छी मालूम होती है उसमें मैं गीता के 11 वें अध्याय से भी ज्यादा काव्य देख रहा हूँ। दो-चार साल पहले आधे दिल से स्वच्छता पाने की कोशिश करने पर भी उसे न पाकर जो निराशा पैदा होती थी, आज उस निराशा का पता भी नहीं है; उल्टे मन में विचार आता है कि जो विकास अनंत काल बाद होने वाला है, उसे आज ही पा लेने का हठ करना मूर्खता है। सारे दिन में कातते समय और रामायण का अभ्यास करते समय आराम मिलता है।" इस पत्र के लेखक में जितनी निराशा और जितना अविश्वास था, शायद ही किसी दूसरे नौजवान में उतनी निराशा और उतना अविश्वास हो। दोनों ने उसके शरीर में घर कर लिया था; लेकिन आज उसमें जिस श्रद्धा का उदय हुआ है, उससे सब नवयुवकों में आशा का संचार होना चाहिए। जो लोग अपनी इंद्रियों को जीत सके हैं, उनके अनुभव पर भरोसा करके लगन के साथ रामायण आदि का अभ्यास करने वाले का दिल पिघले बिना रह ही नहीं सकता। मामूली विषयों के अभ्यास के लिए भी जब हमें अक्सर बरसों तक मेहनत करनी पड़ती है, कई तरकीबों से काम लेना पड़ता है, तो फिर जिस विषय में सारी जिंदगी की और उसके बाद की शान्ति का भी प्रश्न छिपा हुआ है, उस विषय के अभ्यास के लिए हममें कितनी लगन होनी चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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