गीता माता -महात्मा गांधी
10 : गीता-जयन्ती
‘‘इस वर्ष गीता-जयंती शुक्रवार 22 दिसंबर को पड़ती है। जो प्रार्थना मैं कई साल से आपसे करता आया हूं, वही इस बार भी दुहराता हूँ कि आप ‘हरिजन‘ में गीता और गीता-जयंती पर लिखें। एक बात और भी पिछले वर्ष कही थी, वह फिर से कहता हूँ। गीता पर आपने अपने व्याख्यानों में एक जगह कहा है कि जिन्हें 700 श्लोकों की पूरी गीता का पारायण करने का अवकाश नहीं, उनके लिए दूसरा और तीसरा अध्याय पढ़ लेना काफी है। आपने यह भी कहा है कि इन दो अध्यायों का भी सार किया जा सकता है। संभव हो तो आप समझाइए कि आप दूसरे और तीसरे अध्याय को क्यों आधार भूत मानते हैं? मैने भी दूसरे और तीसरे अध्याय के श्लोक गीता-बीज के रूप में प्रकाशित करके यही विचार जनता के सामने रखने का प्रयत्न किया है। अवश्य ही आपके इस विषय पर लिखने का प्रभाव अधिक पड़ेगा।" अब तक मैंने श्री केतकर की बात नहीं मानी थी। मैं नहीं जानता कि जिस उद्देश्य से ये जयंतियां मनाई जाती हैं, वह इस तरह पूरा होता है। आध्यात्मिक विषयों में विज्ञापन के साधारण साधनों का संथान नहीं होता। आध्यात्मिक वस्तुओं का उत्तम विज्ञापन तो उनके अनुरूप कर्म ही होता है। मेरा विश्वास है कि सभी आध्यात्मिक ग्रंथों का प्रभाव दो बातें होने से पड़ता है। एक तो यह कि उनमें लेखकों के अनुभवों का सच्चा इतिहास हो और दूसरे उनके भक्तों का जीवन यथासंभव उनके उपदेशकों के अनुसार रहा हो। इस प्रकार ग्रंथकार अपने ग्रंथो में प्राण-संचार करते हैं और अनुयायी उनके अनुसार करके उनका पोषण करते हैं। मेरी सम्मति में करोड़ों पर गीता, तुलसी कृत रामायण आदि पुस्तकों के प्रभाव का यही रहस्य है। श्री केतकर के आग्रह को मानने में मैं यह आशा रखता हूँ कि आगामी जयंती-उत्सव में भाग लेने वाले उचित भावना से प्रेरित होंगे और गीता के पवित्र संदेश के अनुसार अपना जीवन बनाने का दृढ़ निश्चय करेंगे। मैंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यह संदेश आसक्ति छोड़कर स्वधर्म पालन करना ही है। मेरा यह मत रहा है कि गीता का मुख्य विषय दूसरे अध्याय में बताया गया है। ऐसा कहने का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे अध्यायों की महिमा कम है। वास्तव में एक अध्याय का अपना महत्त्व अलग ही है। विनोबा ने गीता को ‘गीताई ‘ अर्थात ‘गीता-माता‘ कहकर पुकारा है। उन्होंने उसका बहुत ही सरल और ओजस्वी मराठी में पद्यानुवाद किया है। उसका छंद भी वही रखा है, जो मूल संस्कृत में है। हज़ारों के लिए गीता ही सच्ची माता है; क्योंकि वह कठिनाइयों में सान्त्वना-रूपी पौष्टिक दूध देती है। मैंने उसे अपना आध्यात्मिक कोश कहा है; क्योंकि दुःख में मैं उससे कभी निराश नहीं हुआ हूँ। इसके अतिरिक्त, यह ऐसी पुस्तक है जिसमें साम्प्रदायिकता और धार्मिक अधिकार का नाम भी नहीं है। यह मनुष्य-मात्र को प्रेरणा देती है। मैं गीता को क्लिष्ट पुस्तक नहीं मानता। निःसन्देह पंडितों के तो जो चीज भी हाथ पड़ जाये, उसी में वे गहनता देख लेते हैं; परन्तु मेरी सम्मति में साधारण बुद्धि के मनुष्य को भी गीता के सरल संदेश को समझ लेने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। उसकी संस्कृत तो अत्यंत सरल है। मैंने गीता के कई अंग्रेजी अनुवाद पढ़े हैं, परन्तु एडविन ऑरनाल्ड के छन्दानुवाद की तुलना का एक भी नहीं है। इसका नाम भी उन्होंने स्वर्गीय गीत बहुत सुन्दर और उपयुक्त रखा है। 11 दिसंबर, 1939 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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