गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
दूसरा अध्याय
सोमप्रभात अर्जुन को जब कुछ चेत हुआ तो भगवान ने उसे उलाहना दिया और कहा कि यह मोह तुझे कहाँ से आ गया? तेरे-जैसे वीर पुरुष को यह शोभा नहीं देता। पर अर्जुन का मोह यो टलने वाला नहीं था। वह लड़ने से इन्कार करके बोला, ʻʻइन सगे-संबंधियों और गुरुजनों को मारकर, मुझे राजपाट तो दर-किनार, स्वर्ग का सुख भी नहीं चाहिए। मैं कर्त्तव्य विमूढ़ हो गया हूँ। इस स्थिति में धर्म क्या है, यह मुझे नहीं सूझता। मैं आपकी शरण हूं, मुझे धर्म बतलाइये।" इस भाँति अर्जुन को बहुत व्याकुल और जिज्ञासु देखकर भगवान को दया आई। वह उसे समझाने लगे, ʻʻतू व्यर्थ दु:खी होता है और बेसमझे-बूझे ज्ञान की बातें करता है। जान पड़ता है कि तू देह और देह में रहने वाले आत्मा का भेद ही भूल गया है। देह मरती है, आत्मा नहीं मरता। देह तो जन्म से ही नाशवान है, देह में जैसे जवानी और बुढ़ापा आता है, वैसे ही उसका नाश भी होता है। देह का नाश होने पर देही का नाश कभी भी होता है। देह का जन्म है, आत्मा का जन्म नहीं है। वह तो अजन्मा है। वह बढ़ता-घटता नहीं। वह तो सदैव था, आज है और आगे भी रहने वाला है। फिर तू किसका शोक करता है ? तेरा शोक तेरे मोह का कारण है। इन कौरव आदि को तू अपना मानता है, इसलिए तुझे ममता हो गई है, पर तुझे समझना चाहिए कि जिस देह से तुझे ममता है वह तो नाशवान ही है। उसमें रहने वाले जीव का विचार करने पर तो तत्काल तेरी समझ में आ जायगा कि उसका नाश तो कोई कर ही नहीं सकता। उसे न अग्नि जला सकती है, न वह पानी में डूब सकता है, न वायु उसे सुखा सकती है। इसके सिवा तू अपने धर्म को तो सोच ! तू तो क्षत्रिय है। तेरे पीछे यह सेना इकट्ठी हुई है। अब अगर तू कायर बन जाय तो तू जो चाहता है, उससे उल्टा नतीजा होगा और तेरी हँसी होगी। आज तक तेरी गिनती बहादुरों में हुई है। अब यदि तू बीच में लड़ाई छोड़ देगा तो लोग कहेंगे कि अर्जुन कायर होकर भाग गया। यदि भागने में धर्म होता तो लोक निंदा की कोई परवाह न थी, पर यहाँ तो यदि तू भागे तो अधर्म होगा और लोक निंदा उचित समझी जायगी, यह दोहरा दोष होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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