गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
आठवां अध्याय
अक्षरब्रह्म्रयोग
अर्जुन उवाच अर्जुन बोले- हे पुरुषोत्तम! इस ब्रह्म का क्या स्वरूप है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसे कहते हैं? अधिदैव क्या कहलाता है? अधियज्ञ: कयं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। हे मधुसूदन! इस देह में अभियज्ञ क्या है और किस प्रकार है? और संयमी आपको मृत्यु किस तरह पहचान सकता है। श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान बोले- जो सर्वोत्तम अविनाशी है वह ब्रह्म है; प्राणी मात्र में अपनी सत्ता से जो रहता है वह अध्यात्म है और प्राणी मात्र को उत्पन्न करने वाला सृष्टि व्यापार कर्म कहलाता है। अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्। अधिभूत मेरा नाशवान स्वरूप है। अधिदैव उसमें रहने वाला मेरा जीवन रूप है। और हे मनुष्यश्रेष्ठ! अधियज्ञ इस शरीर में स्थित किंतु यज्ञ द्वारा शुद्ध हुआ जीवनरूप है। टिप्पणी- तात्पर्य, अव्यक्त ब्रह्म से लेकर नाशवान दृश्य पदार्थमात्र परमात्मा ही है और सब उसी की कृति है। तब फिर मनुष्य प्राणी स्वयं कर्तापन का अभिमान, रखने के बदले परमात्मा का दास बनकर सब कुछ उसे समर्पण क्यों न करे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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