गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 40

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
सोलहवां अध्‍याय

यरवदा मंदिर
7-2-32

श्री भगवान कहते हैं - अब मैं तुझे धर्म वृत्ति और अधर्म वृत्ति का भेद बतलाता हूँ। धर्म वृत्ति के बारे में तो मैं पहले बहुत कह गया हूं, तो भी उसके लक्षण कह जाता हूँ। जिसमें धर्म वृत्ति होती है, उसमें निर्भयता, अंत:करण की शुद्धि, ज्ञान, समता, इंद्रिय- दमन, यज्ञ, शास्‍त्रों का, अभ्‍यास, तप, सरलता, अहिंसा, सत्‍य, अक्रोध, त्‍याग, शांति, किसी की चुगली न खाना अर्थात अपैशून्‍यता, भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता, कोमलता, मर्यादा, अचंचलता, तेज क्षमा, धीरज, अंतर और बाहर की स्‍वच्‍छता, अद्रोह और निराभिमानता होती है।

अधर्म वृत्ति वाले में दंभ, दर्प अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान देखने में आता है। धर्म वृत्ति मनुष्‍य को मोक्ष की ओर ले जाती है। अधर्म वृत्ति बंधन में डालती है। हे अर्जुन, तू तो धर्म वृत्ति लेकर ही जन्‍मा है। अधर्म वृत्ति का थोड़ा विस्‍तार कर देता हूँ कि जिससे उसका त्‍याग सहज में लोग कर सकें। अधर्म वृत्तिवाला प्रवृत्ति और निवृत्ति का भेद नहीं जानता है, उसे शुद्ध-अशुद्ध का या सत्‍यासत्‍य का भान नहीं होता तो फिर उसके बर्ताव का तो ठिकाना ही कहाँ से होगा? उसका मन जगत झूठा, निराधार है, जगत का कोई नियंता नहीं है, स्‍त्री- पुरुष का संबंध ही उसका जगत है, अत: इसमें विषय-भोग के सिवा दूसरा विचार नहीं मिलता।

ऐसी वृत्ति वालों के कार्य भयानक होते हैं, उनकी मति मंद होती है, ऐसे लोग अपने दुष्‍ट विचारों को पकड़े रहते हैं और जगत के नाश के लिए ही उनकी सब प्रवृत्तियां होती हैं। उनकी कामनाओं का अंत ही नहीं आता। वे दंभ, मान, मद में भूले रहते हैं। उनकी चिंता का भी पार नहीं होता। उन्‍हें नित्‍य नये भोग चाहिए। सैकड़ों आशाओं के महल चुनते रहते हैं और अपनी कामना के पोषण के लिए द्रव्‍य एकत्र करने में न्‍याय- अन्‍याय का भेद बिलकुल छोड़ देते हैं।

ʻआज यह पाया और कल वह और प्राप्‍त करूंगा; इस शत्रु को आज मारा, फिर दूसरे को मारूंगा; मैं बलवान हूं; मेरे पास ऋद्धि-सिद्धि है; मेरे समान दूसरा कौन है; कीर्ति- प्राप्ति के लिए यज्ञ करूंगा; दान दूंगा और चैन की वंशी बजाऊँगा;ʼ यों मन-ही-मन मानता हुआ वह खुश होता रहता है और अंत में मोह-जाल में फंस कर नरक वास पाता है।


ये आसुरी वृत्ति वाले प्राणी अपने घमंड में भूले रहकर परनिंदा करते हुए सर्वव्‍यापक ईश्वर का द्वेष करते हैं और इससे वे बांरबार आसुरी योनि में जन्‍मते हैं।

नरक के, आत्‍मा को नाश करने वाले, ये तीन दरवाजे हैं - काम, क्रोध और लोभ। सबको इन तीनों का त्‍याग करना चाहिए। उनका त्‍याग करने वाले कल्‍याण-मार्ग के पथिक होते हैं और वे परमगति को पाते हैं। जो अनादि सिद्धांतरूपी शास्‍त्रों का त्‍याग करके स्‍वेच्‍छा से भोग में पड़ रहते हैं, वे न सुख पाते हैं और न कल्‍याण-मार्ग में रहकर शांति पाते हैं। इससे कार्य-अकार्य का निर्णय करने में अनुभवियों से अचल सिद्धांत जान लेने चाहिए और उनका अनुसरण करके आचार-विचार का निश्‍चय करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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