गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 41

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
सत्रहवां अध्‍याय

यरवदा मंदिर
14-2-32

अर्जुन पूछता है - जो शिष्‍टाचार छोड़कर भी श्रद्धापूर्वक सेवा करते हैं, उनकी गति कैसी होती है? भगवान उत्तर देते हैं - श्रद्धा तीन प्रकार की होती है - सात्त्विक, राजसी और तामसी। श्रद्धा के अनुसार मनुष्‍य होता है। सात्त्विक मनुष्‍य ईश्वर को, राजस यक्ष-राक्षसों को और तामस भूत-प्रेतों को भजता है। पर किसी की श्रद्धा कैसी है, यह एकाएक नहीं जाना जा सकता। उसका आहार कैसा है, उसका तप कैसा है, यज्ञ कैसा है, दान कैसा है, यह जानना चाहिए और उन सबके भी तीन- तीन प्रकार हैं, जो बतलाता हूँ।

जिस आहार से आयु, निर्मलता, बल, आरोग्‍य, सुख और रुचि बढ़ती है, वह आहार सात्त्विक कहलाता है। जो तीखा, खट्टा, चरपरा और गरम होता है, वह राजस है। उससे दु:ख और रोग उत्‍पन्‍न होते हैं। जो रींधा हुआ आहार बासी हो, बदबू करता हो, जूठा हो और अन्‍य प्रकार से अपवित्र हो, उसे तामस जानना।

जिस यज्ञ के करने में फल की इच्‍छा नहीं है, जो कर्त्तव्‍य- रूप से तन्‍मयता से होता है वह सात्त्विक माना जाता है, जिसमें फल की आशा है और दंभ भी है, उसे राजस, यज्ञ जानना; जिसमें कोई विधि नहीं है, न कुछ उपज है, न कोई मंत्र है, न कोई त्‍याग है, वह यज्ञ तामस है। जिसमें संतों की पूजा है, पवित्रता है, ब्रह्मचर्य है, अहिंसा है, वह शारीरिक तप है। सत्‍य, प्रिय, हितकर वचन और धर्म- ग्रन्‍थ का अभ्‍यास वाचिक तप है। मन की प्रसन्‍नता, सौम्‍यता, मौन, संयम, शुद्ध भावना, यह मानसिक तप कहलाता है। ऐसा शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप जो समभाव से फलेच्‍छा का त्‍याग करके किया जाता है, वह सात्त्विक तप कहलाता है। जो तप मान की आशा से, दंभपूर्वक किया जाता है, उसे राजस जानना और जो तप पीड़ित होकर और दुराग्रह से या दूसरे के नाश के लिए किया जाय, जिसमें शरीरस्‍थ आत्‍मा को क्‍लेश हो, वह तप तामस है।

कर्तव्‍य बुद्धि से दिया गया, बिना फलेच्‍छा के देश, काल, पात्र देखकर दिया गया दान सात्त्विक है। जिसमें बदले बदले की आशा है और जिसे देते हुए संकोच हो, वह दान राजस है और देश-कालादि का विचार किये बिना, तिरस्‍कृत भाव से या मान बिना दिया हुआ दान तामस है।

वेदों ने ब्रह्म का वर्णन तत्‍सत् रूप से किया है, अत: श्रद्धालु को चाहिए कि यज्ञ, दान, तप आदि किया इसका उच्‍चा- रण करके करे। अर्थात एकाक्षरी ब्रह्म। तत् अर्थात् वह सत् अर्थात् सत्‍य, कल्‍याण रूप। मतलब कि ईश्वर एक है, यही है, यही सत्‍य है, यही कल्‍याण करने वाला है। ऐसी भावना रखकर और ईश्‍वरार्पण बुद्धि से जो यज्ञादि करते हैं, उनकी श्रद्धा सात्त्विक है और वह शिष्‍टाचार को न जानने के कारण से अथवा जानते हुए भी, ईश्‍वरार्पण बुद्धि से उससे कुछ भिन्‍न करते हैं, तथापि वह दोषरहित है। पर जो किया ईश्‍वरार्पण बुद्धि के बिना होती है, वह बिना श्रद्धा की मानी जाती है। वह असत्‌ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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