गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 20

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
छठा अध्‍याय


मंगल प्रभात
16-12-30

श्री भगवान कहते हैं - कर्म-फल त्‍यागकर कर्त्तव्‍य-कर्म करने वाला मनुष्‍य संन्‍यासी कहलाता है और योगी भी कहलाता है। जो क्रिया मात्र का त्‍याग कर बैठता है, वह आलसी है। असली बात तो है मन के घोड़े दौड़ाना छोड़ने की। जो योग अर्थात समत्‍व को साधना चाहता है उसकी कर्म बिना गुजर ही नहीं। जिसे समत्‍व प्राप्‍त हो गया है, वह शांत दिखाई देता है। तात्‍पर्य, उसके विचार मात्र में कर्म का बल आ गया रहता है। जब मनुष्‍य इंद्रिय के विषयों में या कर्म में आसक्‍त न हो और मन की सारी तरंगों को छोड़ दे तब कहना चाहिए कि उसने योग साधा है, वह योगारूढ़ हुआ है।

आत्मा का उद्धार आत्‍मा से ही होता है। तब कह सकते हैं कि आत्‍मा स्‍वयं ही अपना शत्रु बनता है और मित्र बनता है। जिसने मन को जीता है, उसका आत्‍मा मित्र है, जिसने नहीं जीता है, उसका आत्‍मा शत्रु है। मन को जीतने वाले की पहचान है कि उसके लिए सरदी-गरमी, सुख-दु:ख, मान-अपमान सब एक समान होते हैं।

योगी उसका नाम है, जिसे ज्ञान है, अनुभव है, जो अविचल हैं। जिसने इंद्रियों पर विजय पाई है, और जिसके लिए सोना, मिट्टी या पत्‍थर समान है। वह शत्रु-मित्र, साधु- असाधु इत्‍यादि के प्रति समभाव रखता है। ऐसी स्थिति को पहुँचने के लिए मन स्थिर करना, वासनाएं त्‍यागना और एकांत में बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान करना चाहिए। केवल आसन आदि ही बस नहीं हैं। समत्‍व–प्राप्ति के इच्‍छुकों को ब्रह्मचर्यादि महाव्रतों का भली प्रकार पालन करना चाहिए। यों आसनबद्ध हुए यम-नियमों का पालन करने-वाले मनुष्‍य को अपना मन परमात्‍मा में स्थिर करने से परम शांति प्राप्‍त होती है।

यह समत्‍व ठूंस-ठूंसकर खाने वाला तो नहीं पा सकता, पर कोरे उपवास से भी नहीं मिलता, न बहुत सोने वाले को मिलता है, वैसे ही बहुत जागने से भी हाथ नहीं आता। समत्‍व-प्राप्ति के इच्‍छुक को तो सब में - खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी मर्यादा की रक्षा करनी चाहिए। एक दिन खूब खाया और दूसरे दिन उपवास; एक दिन खूब सोये और दूसरे दिन जागरण; एक दिन खूब काम करना और दूसरे दिन अलसाना, यह योग की निशानी नहीं है। योगी तो सदैव स्थिरचित्त होता है और कामना मात्र का वह अनायास त्‍याग किये रहता है। ऐसी योगी की स्थिति निर्वात स्‍थान में दीपक की भाँति स्थिर रहती है। उसे जग के खेल अथवा अपने मन में उठने वाले विचारों की लहरें डावांडोल नहीं कर सकतीं। धीरे-धीरे किंतु दृढ़तापूर्वक प्रयत्‍न करने से यह योग सध सकता है। मन चंचल है, इससे इधर-उधर दौड़ता है, उसे धीरे-धीरे स्थिर करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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