स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 12 में स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर एवं भीष्‍म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- राजन! स्‍त्री और पुरुष के संयोग में विषयसुख की अनुभूति किसको अधिक होती है (स्‍त्री को या पुरुष को)? इस संशय के विषय में आप यथावत रूप से बताने की कृपा करें। भीष्‍म जी ने कहा- राजन! इस विषय में भी भंगास्‍वन के साथ इन्‍द्र का पहले जो वैर हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है।

इन्‍द्र एवं राजर्षि भंगास्‍वन की कथा

पुरुषसिंह! पहले की बात है, भंगास्‍वन नाम से प्रसिद्ध अत्‍यंत धर्मात्‍मा राजर्षि पुत्रहीन होने के कारण पुत्र-प्राप्ति के लिय यज्ञ करते थे। उन महाबली राजर्षि ने अग्निष्‍टुत नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उसमें इन्‍द्र की प्रधानता न होने के कारण इन्‍द्र उस यज्ञ में द्वेष रखते हैं। वह यज्ञ मनुष्‍यों के प्रायश्चित के अवसर पर अथवा पुत्र की कामना होने पर अभीष्‍ट मानकर किया जाता है। महाभाग देवराज इन्‍द्र को जब उस यज्ञ की बात मालूम हुई तब वे मन को वश में रखने वाले राजर्षि भंगास्‍वन का छिद्र ढूंढने लगे। राजन! बहुत ढूंढने पर भी वे उस महामना नरेश का कोई छिद्र न देख सके। कुछ काल के अनन्‍तर राजा भंगास्‍वन शिकार खेलने के लिये वन में गये। नरेश्‍वर! ‘यही बदला लेने का अवसर है’ ऐसा निश्‍चय करके इन्‍द्र ने राजा को मोह में डाल दिया। इन्‍द्र द्वारा मोहित एवं भ्रान्‍त हुए राजर्षि भंगास्‍वन एकमात्र घोड़े के साथ इधर-उधर भटकने लगे। उन्‍हे दिशाओं का भी पता नहीं चलता था। वे भूख-प्‍यास से पीड़ित तथा परिश्रम और तृष्‍णा से विकल हो इधर-उधर घूमते रहे। तात! घूमते-घूमते उन्‍होंने उत्‍तम जल से भरा हुआ एक सुन्‍दर सरोवर देखा। उन्‍होनें घोड़े को उस सरोवर में स्‍नान कराकर पानी पिलाया। जब घोड़ा पानी पी चुका तब उसे एक वृक्ष में बांधकर वे श्रेष्‍ठ नरेश स्‍वयं भी जल से उतरे। उसमें स्‍नान करते ही वे राजा स्‍त्री भाव को प्राप्‍त हो गये। अपने को स्‍त्री रूप में देखकर राजा को बड़ी लज्‍जा हुई। उनके सारे अन्‍त: करण में भारी चिन्‍ता व्‍याप्‍त हो गयी। उनकी इन्द्रियां और चेतना व्‍याकुल हो उठीं। वे स्‍त्री रूप में इस प्रकार सोचने लगे- अब मैं कैसे घोड़े पर चढूंगी? मेरे अग्निष्‍टुत यज्ञ के अनुष्‍ठान से मुझे सौ महाबलवान औरस पुत्र प्राप्‍त हुए हैं। उन सबसे क्‍या कहूंगी? अपनी स्त्रियों तथा नगर और जनपद के लोगों में कैसे जाउंगी? ‘धर्म के तत्‍वों को देखने और जानने वाले ऋषियों ने मृदुता, कुशलता और व्‍याकुलता- ये स्‍त्री के गुण बताये हैं। ‘परिश्रम करने में कठोरता और बल पराक्रम- ये पुरुष के गुण हैं। मेरा पौरूष नष्‍ट हो गया और किसी अज्ञात कारण से मुझ में स्‍त्रीत्‍व प्रकट हो गया। ‘अब स्‍त्रीभाव आ जाने से उस अश्‍व पर कैसे चढ़ सकूंगी? तात! किसी-किेसी तरह महान प्रयत्‍न करके वे स्‍त्रीरूप धारी नरेश घोड़े पर चढ़कर अपने नगर में आये। राजा के पुत्र, स्त्रियां, सेवक तथा नगर और जनपद के लोग, ‘यह क्‍या हुआ?’- ऐसी जिज्ञासा करते हुए बड़े आश्‍चर्य में पड़ गये। तब स्‍त्रीरूपधारी, वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ राजर्षि भंगास्‍वन बोले- ‘मैं अपनी सेना में घिरकर शिकार खेलन के लिए निकला था, परंतु दैव की प्रेरणा से भ्रान्‍तचित होकर एक भयानक वन में जा घुसा। उस घोर वन में प्‍यास से पीडित एवं अचेत-सा होकर मैंने एक सरोवर देखा, जो पक्षियों से घिरा हुआ और मनोहर शोभा से सम्‍पन्‍न था। उस सरोवर में उतरकर स्‍नान करते ही दैव ने मुझे स्त्री बना दिया। अपनी स्त्रियों ओर मंत्रियों के नाम-गोत्र बताकर उन स्‍त्रीरूपधारी श्रेष्‍ठ नरेश ने अपने पुत्रों से कहा- ‘पुत्रों! तुम लोग आपस में प्रेमपूर्वक रहकर राज्‍य का उपभोग करो। अब मैं वन को चला जाउंगा’।[2]

अपने सौ पुत्रों से ऐसा कहकर राजा वन को चले गये। वह स्‍त्री किसी आश्रम में जाकर एक तापस के आश्रय में रहने लगी। उस तपस्वी से आश्रम में उसके सौ पुत्र हुए। तब वह रानी अपने उन पुत्रों को लेकर पहले वाले पुत्रों के पास गयी और उनसे इस प्रकार बोली- ‘पुत्रों! जब मैं पुरुषरूप में आयी हूँ तब ये मेरे सौ पुत्र हुए हैं। तुम सब लोग एकत्र होकर साथ-साथ भ्रातृभाव से इस राज्‍य का उपभोग करो’। तब वे सब भाई एक साथ होकर उस राज्‍य का उपभोग करने लगे। उन सबको भ्रातृभाव से एक साथ रहकर उस उत्‍तम राज्‍य का उपभोग करते देख क्रोध में भरे हुए देवराज इन्‍द्र ने सोचा कि मैंने तो इस राजर्षि का उपकार ही कर दिया, अपकार तो कुछ किया ही नहीं। तब देवराज इन्‍द्र ने ब्राह्मण का रूप धारण करके उस नगर में जाकर उन राजकुमारों में फूट डाल दी। वे बोले- ‘राजकुमारो! जो एक पिता के पुत्र हैं, ऐसे भाइयों में भी प्राय: उत्‍तम भ्रातृप्रेम नहीं रहता। देवता और असुर दोनों ही कश्‍यप जी के पुत्र हैं तथापि राज्‍य के लिये परस्‍पर विवाद करते रहते हैं’। ‘तुम लोग तो भंगास्‍वन के पुत्र हो और दूसरे सौ भाई एक तापस के लड़के हैं। फिर तुम में प्रेम कैसे रह सकता है? देवता और असुर तो कश्‍पय के ही पुत्र है, फिर भी उनमें प्रेम और असुर तो कश्‍यप के ही पुत्र है, फिर भी उनमें प्रेम नहीं हो पाता है। ‘तुम लोगों का जो पैतृक राज्‍य है, उसे तापस के लड़के आकर भोग रहे हैं। ‘इस प्रकार इन्‍द्र के द्वारा फूट डालने पर वे आपस में लड़ पड़े। उन्‍होनें युद्ध में एक-दूसरे को मार गिराया। यह समाचार सुनकर तापसी को बड़ा दु:ख हुआ। वह फूट-फूटकर रोने लगी। उस समय ब्राह्मण का वेश धारण करके इन्‍द्र उसके पास आये और पूछने लगे- ‘सुमुखि! तुम किसी दु:ख से संतप्‍त होकर रो रही हो?’ उस ब्राह्मण को देखकर वह स्‍त्री करूण स्‍वर में बोली- ‘‍ब्रहान्! मेरे दो सौ पुत्र काल के द्वारा मारे गये। विप्रवर! मैं पहले राजा था। तब मेरे सौ पुत्र हुए थे। द्विज श्रेष्‍ठ! वे सभी मेरे अनुरूप थे। एक दिन मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में गया और वहाँ अकारण भ्रमित-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा। ‘ब्राह्मणशिरोमणे! वहाँ एक सरोवर में स्‍नान करते ही मैं पुरुष से स्‍त्री हो गया और पुत्रों को राज्‍य पर बिठाकर वन में चला आया। ‘स्‍त्री रूप में आने पर महामना ताप से इस आश्रम में मुझसे सौ पुत्र उत्‍पन्‍न किये। ब्रहृान्! मैं उन सब पुत्रों को नगर में ले गयी और उन्‍हें भी राज्‍य पर प्रतिष्ठित करायी। 'विप्रवर! काल की प्रेरणा से उन सब पुत्रों में वैर उत्‍पन्‍न होय गया और वे आपस में ही लड़-भिड़कर नष्‍ट हो गये। इस प्रकार दैव की मारी हुई मैं शोक में डूब रही हूँ। इन्‍द्र ने उसे दु:खी देख कठोर वाणी में कहा- भद्रे! जब पहले तुम राजा थीं, तब तुमने भी मुझे दु:सह दु:ख दिया था।[3]

स्‍त्री-पुरुष के संयोग में स्‍त्री को ही अधिक सुख होना

'तुमने उस यज्ञ का अनुष्‍ठा किया जिसका मुझसे वैर है। मेरा आवाहन न करने तुमने वह यज्ञ पूरा कर लिया। खोटी बुद्धिवाली स्‍त्री! मैं वही इन्‍द्र हूँ और तुम से मैंने ही अपने वैर का बदला लिया है'। इन्‍द्र को देखकर वे स्‍त्रीरूपधारी राजर्षि उनके चरणों में सिर रखकर बोले- 'सुरश्रेष्‍ठ! आप प्रसन्‍न हों। मैंने पुत्र की इच्‍छा से वह यज्ञ किया था। देवेश्‍वर! उसके लिये आप मुझे क्षमा करें'। 'इनके इस प्रकार प्रणाम करने पर इन्‍द्र संतुष्‍ट हो गये और वर देने के लिये उद्यत होकर बोले- राजन! तुम्‍हारें कौन-से पुत्र जीवित हो जायें? तुमने स्‍त्री होकर जिन्‍हें उत्‍पन्‍न किया था, वे अथवा पुरुषावस्‍था में जो तुमसे उत्‍पन्‍न हुए थे?' तब तापसी ने इन्‍द्र से हाथ जोड़कर कहा- 'देवेन्‍द्र! स्‍त्रीरूप हो जाने पर मुझ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न हुए हैं, वे ही जीवित हो जायं। तब इन्‍द्र ने विस्मित होकर उस स्‍त्री से पूछा- 'तुमने पुरुषरूप से जिन्‍हें उत्‍पन्‍न किया था, वे पुत्र तुम्‍हारे द्वेष के पात्र क्‍यों हो गये? तथा स्‍त्री रूप होकर तुमने जिनको जन्‍म दिया है, उन पर तुम्‍हारा अधिक स्‍नेह क्‍यों है? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूँ। तुम्‍हें मुझसे यह बताना चाहिये। स्‍त्री ने कहा- इन्‍द्र! स्‍त्री का अपने पुत्रों पर अधिक स्‍नेह होता है, वैसा स्‍नहे पुरुष का नहीं होता है। अत: इन्‍द्र! स्‍त्री रूप में आने पर मुझ से जिनका जन्‍म हुआ है, वे ही जीवित हो जायं।

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! तापसी के यों कहने पर इन्‍द्र बड़े प्रसन्‍न हुए और इस प्रकार बोले- 'सत्‍यवादिनि! तुम्‍हारे सभी पुत्र जीवित हो जायं। 'उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजेन्‍द्र! तुम मझसे अपनी इच्‍छा के अनुसार दूसरा वर भी मांग लो। बोलो, फिर से पुरुष होना चाहते हो या स्‍त्री ही रहने की इच्‍छा? जो चाहों वह मुझ से ले लो'। स्‍त्री ने कहा- इन्‍द्र! मैं स्‍त्रीत्‍व की वरण करती हूँ। वासव! अब मैं पुरुष होना नहीं चाहती। उसके ऐसा कहने पर देवराज ने उस स्‍त्री से पूछा- 'प्रभो! तुम्‍हे पुरुषत्‍व का त्‍याग करके स्‍त्री बने रहने की इच्‍छा क्‍यों होती है?' इन्‍द्र के यों पूछने पर उन स्‍त्री रूपधारी नृपश्रेष्‍ठ ने इस प्रकार उत्‍तर दिया- 'देवेन्‍द्र! स्‍त्री का पुरुष के साथ संयोग होन पर स्‍त्री को ही पुरुष की अपेक्षा अधिक विषय सुख प्राप्‍त होता है, इसी कारण से मैं स्‍त्रीत्‍व का ही वरण करती हूं'। 'देवश्रेष्‍ठ! सुरेश्‍वर! मैं सच कहती हूं, स्‍त्री रूप में मैंने अधिक रति-सुख का अनुभव किया है, अत: स्‍त्री रूप से ही संतुष्‍ट हूँ। आप पधारिये। महाराज! तब 'एवमस्‍तु' कह कर उस तापसी से विदा ले इन्‍द्र स्‍वर्ग लोक को चले गये। इस प्रकार स्‍त्री को विषय-भोग में पुरुष की अपेक्षा अधिक सुख-प्राप्‍त बतायी जाती है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-2
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 3-22
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 23-39
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 40-54

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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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