महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 23-39

द्वादश (12) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद


अपने सौ पुत्रों से ऐसा कहकर राजा वन को चले गये। वह स्‍त्री किसी आश्रम में जाकर एक तापस के आश्रय में रहने लगी। उस तपस्वी से आश्रम में उसके सौ पुत्र हुए। तब वह रानी अपने उन पुत्रों को लेकर पहले वाले पुत्रों के पास गयी और उनसे इस प्रकार बोली- 'पुत्रों! जब मैं पुरुषरूप में थी, तब तुम मेरे सौ पुत्र हुए थे और जब स्त्री रूप में आई हूँ, तब मेरे ये सौ पुत्र हुए हैं। तुम सब लोग एकत्र होकर साथ-साथ भ्रातृभाव से इस राज्‍य का उपभोग करो।'

तब वे सब भाई एक साथ होकर उस राज्‍य का उपभोग करने लगे। उन सबको भ्रातृभाव से एक साथ रहकर उस उत्‍तम राज्‍य का उपभोग करते देख क्रोध में भरे हुए देवराज इन्‍द्र ने सोचा कि- 'मैंने तो इस राजर्षि का उपकार ही कर दिया, अपकार तो कुछ किया ही नहीं।' तब देवराज इन्‍द्र ने ब्राह्मण का रूप धारण करके उस नगर में जाकर उन राजकुमारों में फूट डाल दी। वे बोले- 'राजकुमारों! जो एक पिता के पुत्र हैं, ऐसे भाइयों में भी प्राय: उत्‍तम भ्रातृप्रेम नहीं रहता। देवता और असुर दोनों ही कश्यप जी के पुत्र हैं तथापि राज्‍य के लिये परस्‍पर विवाद करते रहते हैं। तुम लोग तो भंगास्वन के पुत्र हो और दूसरे सौ भाई एक तापस के लड़के हैं। फिर तुम में प्रेम कैसे रह सकता है? देवता और असुर तो कश्‍पय के ही पुत्र हैं, फिर भी उनमें प्रेम नहीं हो पाता है। तुम लोगों का जो पैतृक राज्‍य है, उसे तापस के लड़के आकर भोग रहे हैं।'

इस प्रकार इन्‍द्र के द्वारा फूट डालने पर वे आपस में लड़ पड़े। उन्‍होंने युद्ध में एक-दूसरे को मार गिराया। यह समाचार सुनकर तापसी को बड़ा दु:ख हुआ। वह फूट-फूटकर रोने लगी। उस समय ब्राह्मण का वेश धारण करके इन्‍द्र उसके पास आये और पूछने लगे- 'सुमुखि! तुम किसी दु:ख से संतप्‍त होकर रो रही हो?' उस ब्राह्मण को देखकर वह स्‍त्री करुण स्‍वर में बोली- 'ब्रह्मन! मेरे दो सौ पुत्र काल के द्वारा मारे गये। विप्रवर! मैं पहले राजा था। तब मेरे सौ पुत्र हुए थे। द्विजश्रेष्‍ठ! वे सभी मेरे अनुरूप थे। एक दिन मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में गया और वहाँ अकारण भ्रमित-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा। ब्राह्मणशिरोमणे! वहाँ एक सरोवर में स्‍नान करते ही मैं पुरुष से स्‍त्री हो गया और पुत्रों को राज्‍य पर बिठाकर वन में चला आया। स्‍त्रीरूप में आने पर महामना तापस ने इस आश्रम में मुझसे सौ पुत्र उत्‍पन्‍न किये। ब्रह्मन! मैं उन सब पुत्रों को नगर में ले गयी और उन्‍हें भी राज्‍य पर प्रतिष्ठित कर आई। विप्रवर! काल की प्रेरणा से उन सब पुत्रों में वैर उत्‍पन्‍न हो गया और वे आपस में ही लड़-भिड़कर नष्‍ट हो गये। इस प्रकार दैव की मारी हुई मैं शोक में डूब रही हूँ।'

इन्‍द्र ने उसे दु:खी देख कठोर वाणी में कहा- 'भद्रे! जब पहले तुम राजा थीं, तब तुमने भी मुझे दु:सह दु:ख दिया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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