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व्रजरानी की सरस शिक्षा, अपने नीलमणि को स्तन्य-पान से विरत करने का प्रेमिल प्रयास श्रीकृष्णचन्द्र के अरुण अधरों पर स्मित का संचार कर देता है। वे और भी उल्लास में भरकर जननी के वक्षःस्थल का अंचल खींचते हुए उसमें अपना मुखचन्द्र छिपा लेते हैं। मैया उन्हें रोकने की सी चेष्टा करती हुई कहती हैं-
- जसुमति कान्हहि यहै सिखावति।
- सुनहु स्याम, अब बड़े भए तुम, कहि स्तन-पान छुड़ावति।।
- व्रज-लरिका तोहि पीवत देखत, हँसत, लाज नहिं आवति।
- जैंहैं बिगरि दाँत ये आछे, तातैं कहि समुझावति।।
- अजहूँ छाड़ि कह्यौ करि मैरौ, ऐसी बात न भावति।
- सूर स्याम यह सुनि मुसुक्याने, अंचल मुखहि लुकावत।।
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