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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
33. क्रीड़ा-निमग्न बलराम-श्रीकृष्ण को माता का यमुना-तट से बुलाकर लाना और स्नानादि के अनन्तर उनका नन्दरायजी की गोद में बैठकर भोजन करना; आँखमिचौनी-लीला
इतने में सुबल, श्रीदाम, उज्ज्वल, बसन्त, कोकिल आदि सखा प्रांगण में प्रवेश करते हैं। फिर तो श्रीकृष्णचन्द्र जननी यशोदा के अंक में रह सकें, यह सम्भव कहाँ है। वे तत्क्षण उतरकर भाग छूटते हैं। श्यामल श्रीअंगों का त्रिभुवनमोहन सौन्दर्य प्रांगण को उद्भासित करने लगता है। उस आलोक में जननी के नेत्र तो निस्पन्द हो ही गये, अन्तरिक्ष में अवस्थित अमरवृन्द भी विथकित रह जाते हैं-
दौड़ते हुए श्रीकृष्णचन्द्र तपनतनया के तीर पर जा पहुँचते हैं और वहाँ विविध विचित्र क्रीड़ाओं में संलग्न हो जाते हैं। आज इन्हें अग्रज बलराम का सहयोग प्राप्त है, अन्यथा गत कई दिनों से दोनों भाई परस्पर खेलते-खेलते प्रतिदिन ही लड़ लेते थे। एक दिन तो श्रीकृष्णचन्द्र अग्रज से इतना रूठ गये कि खेल छोड़कर व्रजेश्वरी के पा जा पहुँचे और दाऊ भैया की सारी करतूत मैया को सुना दी-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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